Skip to main content

स्वाध्यायप्रवचन ६ : मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च।

स्वाध्यायप्रवचन ६ : मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च।

एक बार एक महात्मा नदी में स्नान कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक बिच्छू पानी में डूब रहा है। उसकी जान बचाने के लिए महात्मा ने उसे उठाकर किनारे रखने की कोशिश की। लेकिन बिच्छू ने उन्हें डंक मार दिया, जिससे उन्हें उसे छोड़ना पड़ा। इसके बावजूद, महात्मा ने बिच्छू को बार-बार बचाने का प्रयास किया, और हर बार बिच्छू उन्हें डंक मारता रहा।

यह देखकर पास से गुजर रहे एक व्यक्ति से रहा नहीं गया। उसने महात्मा से पूछा, "आप यह क्या कर रहे हैं? क्यों उसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं? वह तो आपको बार-बार डंक मार रहा है!"

महात्मा ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "बिच्छू का स्वभाव डंक मारना है, इसलिए वह डंक मार रहा है। लेकिन मनुष्य का स्वभाव प्रेम करना और जीवों की रक्षा करना है। मैं अपने स्वभाव को कैसे भूल सकता हूँ? इसलिए मैं उसे बार-बार बचाने का प्रयास कर रहा हूँ।"

ऐसी कहानियाँ पढ़कर अक्सर हंसी आती है, और कभी-कभी यह भी लगता है कि यह कैसी मूर्खता है। लेकिन अगर इस कहानी में बिच्छू को थोड़ी देर के लिए अलग रखें और सोचें कि महात्मा ऐसा क्यों कर रहे थे, तो गहराई से विचार करने पर समझ में आता है कि मनुष्य होने के नाते प्राणिमात्र पर दया दिखाना, हर जीव की रक्षा करना और सभी को जीवन देने जैसे गुण इंसानियत, यानी मानवता, को दर्शाते हैं।  

ऐसे मानवीय गुणों को खुद में लाने का स्वाध्याय ही वो साधु महात्मान कर रहे थे।

उपनिषदकार तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षावल्ली के नवम अनुवाक में स्वाध्याय का एक और महत्वपूर्ण आयाम बताते हैं: अच्छे व्यवहार का स्वाध्याय यही है— "मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च।"

मनुष्य का जीवन धर्म है, इंसानियत!

निःस्वार्थ सहायता और मदद करना ही इंसानियत है!

दूसरों का सम्मान करना ही इंसानियत है!

दूसरों के प्रति संवेदनशीलता, सहानुभूति, सहवेदना और करुणा ही इंसानियत है!

इंसानियत को बनाए रखते हुए,

हमें मित्रता-शत्रुता, सहयोग-ईर्ष्या, प्रेम-असूया, संतोष-लालच और क्रोध-शांती  

जैसे द्वंद्वों में सही पक्ष का चयन करना चाहिए और

उसके अनुसार आचरण का निरंतर स्वाध्याय करते रहना चाहिए।

एक और उदाहरण देखते हैं। 

जीवो जीवस्य जीवनम्

दिल्ली-आगरा क्षेत्रों में सर्दियों के दौरान पर्यटन के लिए भरतपुर अभयारण्य एक अद्भुत स्थल है। कुछ साल पहले उत्तर भारत के इस अभयारण्य में एक दिन ठहरने का अवसर मिला था। यह अभयारण्य मुख्य रूप से पक्षी अभयारण्य के रूप में प्रसिद्ध है, और सर्दियों के मौसम में यहाँ लगभग ३५० विभिन्न प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं।

भरतपुर अभयारण्य में एक छोटा सा संग्रहालय भी है, जहाँ विभिन्न पक्षियों, उनकी शारीरिक संरचना, विशेषताओं, और उनके स्थलांतर के मार्गों से संबंधित ज्ञानवर्धक जानकारी प्रदर्शित की गई है। संग्रहालय के एक कक्ष में ब्रिटिश काल के दौरान भारतीय राजा-महाराजाओं और ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बाघ और चीते के शिकार की तस्वीरें लगी हैं।

इन्हीं तस्वीरों में से एक ने विशेष रूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया। इस तस्वीर में कुछ ब्रिटिश अधिकारी बंदूकें हाथ में लिए, शिकार किए गए शेर पर पैर रखकर गर्व से खड़े थे। उनके पैरों के पास किसी चीज का एक बड़ा ढेर दिखाई दे रहा था। पास जाकर देखा, तो वह ढेर मारे गए पक्षियों का था।

जब भी कोई नया वायसराय भारत आता था, तो भरतपुर रियासत के महाराजा उसके स्वागत में 'डक शूट' जैसे शिकार कार्यक्रम आयोजित करते थे। संग्रहालय में लगी यह विशेष तस्वीर १९३८ में वायसराय सर लॉर्ड लिनलिथगो के स्वागत के अवसर पर आयोजित 'डक शूट' की थी। इस शिकार कार्यक्रम में भाग लेने वाले अधिकारियों और राजा-महाराजाओं ने एक ही दिन में ४२७३ पक्षियों का शिकार किया था।

भरतपुर संग्रहालय में वह तस्वीर देखना एक अजीब सिहरन पैदा करनेवाला अनुभव था। केवल मनोरंजन के लिए कितने पक्षियों की बलि दी गई थी। मनोरंजन के नाम पर सेकडो लोगोन्द्वारा नगाडे बजवाकर, जानवरों को जनवारो डराकर शिकारी के सामने आने के लिये मजबूर किया जाता था।  ब्रिटीश अफसर या नबाब उस असहाय जानवर पर गोली दाग ते थे और निरिह  जीवों की शिकार की जयजयकार गूंजा करती थी । हत्या करने वाले शिकारीयोन्के के नारे गूंजते थे! जंगल के राजा को मजबूर बनाकर मार दिया जाता था।

खाने के लिये चिडिया या पंछी मार ना एक अलग बात है और एक दिन मे चार हजार दोसो तिहत्तर (4,273) पक्षियों का शिकार? वो भी सिर्फ मनोरंजन के लिये ?

भरतपुर की यह शिकार एक निर्मम जघन्य सामूहिक हत्याकांड था,

न कि साहस या पराक्रम का प्रमाण।

आज भी ऐसे आदिवासी समुदाय, जो आजीविका कें लिये केवळ शिकार पर निर्भर हैं, वे मनोरंजन के लिए शिकार नहीं करते। इन समुदायों के लिए शिकार एक रस्म है, जिसमें कुछ संकेत और नियम होते हैं। यह तय रहाता है कि कौन और कब शिकार कर सकता है। ये समुदाय जंगल की गहरी समझ रखते हैं और जानवरों के आपसी संबंधों तथा मानव जीवन से उनके जुड़े रिश्तों को भलीभांति समझते हैं।

एक जागरूक शिकारी अपने प्रारंभिक दिनों में शौक के लिए शिकार करता होगा, लेकिन जंगल में शिकार के दौरान घुमते समय वह प्रकृति को समझने की कोशिश करता है। यदि इस भ्रमण के दौरान वह प्रकृति के साथ एकत्व का अनुभव करता है, तो उसका  दृष्टिकोण प्रकृति के संरक्षण की दिशा में बदलने की संभावना बढ़ जाती है।

कुछ साल पहले मैंने विश्वास भावे द्वारा अनुवादित 'टाइगर हेवन' नामक किताब पढ़ी थी, जो आज भी स्मरणीय है। इस किताब में हिमालय की तलहटी में फैले घने जंगलों और वहां के जंगली जानवरों के विनाश की कहानी है, जो जंगलों की अंधाधुंध कटाई और मनुष्य के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण दिन-ब-दिन गहराता जा रहा था।

इस विनाश को देखकर अर्जन सिंह, जो कभी बाघों के शिकारी थे, उनका हृदय परिवर्तन कैसे हुआ और उनके अथक प्रयासों से दुधवा अभयारण्य की स्थापना कैसे हुई, यह इस किताब की अद्भुत कहानी है। एक समय में बाघों का शिकारी रहा व्यक्ति कैसे बाघों का संरक्षक बन जाता है और अपने प्रयासों द्वारा दुधवा क्षेत्र को कैसे 'टाइगर हेवन' के रूप में पहचान दिलाता है, यही इस कहानी का मुख्य विषय है।

यह पुस्तक पढ़ते समय मुझे अरुणाचल प्रदेश के रोइंग में मिले एक शिकारी, 'इप्रा,' की याद आ गई। १९९९ में पहली बार मेरी उनसे मुलाकात हुई , जब उन्होंने पारंपरिक शिकारी के लिए बनाए गए जंगल ट्रेल्स और इन ट्रेल्स के दौरान देखी गई जैव विविधता के अनुभव साझा किए। पूर्वोत्तर भारत की यह मेरी पहली यात्रा थी, और वहां के जंगलों की हरी-भरी वादियां मुझे पहले ही मंत्रमुग्ध कर चुकी थीं। इप्राजी ने मुझे उस हरियाली में छिपी अद्भुत विविधता को दिखाया। पिछले दस वर्षों में, जब-जब उनसे मुलाकात हुई, उन्होंने हमेशा मुझे नई कहानियां सुनाईं। ये कहानियां भारत में पाई जाने वाली एकमात्र कपि वर्ग की प्रजाति, ‘हुलोक गिबन,’ के संरक्षण से जुड़ी थीं। अरुणाचल प्रदेश में हुलोक गिबन पाए जाते हैं। ऋतू ने नुसार इनके झुंड जंगल में निश्चित मार्ग व निश्चित समयानुसार गुजरते हैं। लेकिन मानवीय हस्तक्षेप के कारण आजकाल ये मार्ग बाधित हो गए हैं। और इसका असर हुलोक गिबनपर हो रहा हैं। आज, हुलोक गिबन के प्रवास को सुरक्षित तथा सुगम बनाने के लिए एक समय के शिकारी इप्रा और उनके साथी अथक प्रयास कर रहे हैं।

टाइगर हेवन’ पढ़ते समय यह प्रश्न बार-बार मन में उठता था कि एक ऐसा व्यक्ति, जो शौक के लिए शिकार करता था, आदमखोर शेरों का शिकार करना उसके लिए साहस का कार्य था। ऐसा साहस दिखाकर वह आम लोगों के मन से डर दूर कर उनके जीवन को सुरक्षित बनाने का प्रयास करता था। बाद में उसने यह समझा कि शेरों का आदमखोर बनना मानव द्वारा उनके क्षेत्र में किए गए अतिक्रमण का परिणाम है। इसके बाद उसने संरक्षणवादी दृष्टिकोण अपनाकर बाघों के संरक्षण के लिए कार्य करना शुरू किया।

एक व्यक्ति के कर्मों में ऐसा बदलाव कैसे होता है?

भावनाओं का विकास कैसे होता है? और मन का यह परिवर्तन कैसे संभव होता है?"

मनुष्य प्रकृति से अनेक सिद्धांत और नियम सीखता है। पेट की भूख मिटाने के लिए किए गए प्रकृति के निरीक्षण से मनुष्य ने खाद्य श्रृंखला और खाद्य जाल का ज्ञान प्राप्त किया। इसी से ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ जैसा सत्यसूत्र जीवनसूत्र के रूप में सामने आया। जब मनुष्य को यह समझ में आया कि विश्व संचालन में प्रकृति का प्रत्येक जीव महत्वपूर्ण है, तो मानव समुदायों ने सभी जीवों का सम्मान करने वाली जीवनशैली अपनाई। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता में सामाजिक जीवन के त्यौहारों, नियम, आचार और संस्कार के माध्यम से मनुष्य की  प्रकृति के साथ सांझी  संस्कृति विकसित होती गयी।

लेकिन पिछले दो-तीन सौ वर्षों में हुई जनसंख्या वृद्धि, उसकी आवश्यकताओं में अंधाधुंद बढत, औद्योगिकीकरण व आधुनिकीकरण के कारण मनुष्य के स्वभाव में 'जरूरत से शौक और शौक से लालच' तक का उपभोगप्रधान दृष्टिकोण विकसित हुआ है। इस बदलती वृत्ति के कारण व्यक्ति का ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ इस सत्यसूत्र का ज्ञान सीमित ही रहता है। अर्धसत्य को सत्य मानते हुए  लोग यह तर्क देने लगते हैं कि पृथ्वी के प्रत्येक जीव को खाना मेरा अधिकार है और हर जीव मेरे भोजन के लिए ही है, क्योंकि सत्यसूत्र कहता है ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’।

इस तर्क के कारण उनका ज्ञान और विचार केवल ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ तक सीमित हो जाता है। लेकिन जिन्हें इस सत्यसूत्र का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है, वे इसे एक अलग दृष्टिकोण से समझते हैं। वे सोचते हैं, 'प्रकृति के हर जीव का संरक्षण करना हमारी जिम्मेदारी है। यदि हम इस जिम्मेदारी को सही ढंग से निभाएंगे, तभी खाद्य श्रृंखला की सुरक्षा संभव होगी और पृथ्वी पर जीवन का संतुलन बना रहेगा।'

इस तरह का विचार वही व्यक्ति कर सकता है जो संरक्षण या संवर्धन की भूमिका में होता है, न कि उपभोग की भूमिका में। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसे ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ सूत्र में मनुष्य की भूमिका का सटीक ज्ञान हुवा है। वृत्ति में इस बदलाव के कारण ऐसे व्यक्तियों के आचरण का सूत्र ‘संरक्षण से संवर्धन और संवर्धन से अहिंसा’ तक विस्तारित हो जाता है।

मनुष्य के आचार, विचार और उच्चार में बदलाव इस बात पर निर्भर करता है

कि वह  परिस्थितियों और सत्यसूत्रों को किस व्यापकता, दृष्टिकोण, और भाव से देखता हैं।

जब सत्यसूत्र का यथार्थ बोध होता है और व्यक्ति उसके अनुसार आचरण का अभ्यास

 शुरू करता है, तब ‘मानुषम के स्वाध्याय’ की शुरुआत होती है।

ऐसा स्वाध्याय करते समय व्यक्ति की वृत्ति और कृतियों में बदलाव आता है।

जब यह बदलाव ‘शौक से साहस और साहस से संरक्षणवादी’ जैसी वृत्ति परिवर्तन में परिणित होता है, तो जिम कॉर्बेट जैसा एक शिकारी जैव विविधता के संरक्षक जिम कॉर्बेट में बदल जाता हैं।

इतिहास के उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है,

और हमारा सांस्कृतिक विश्वास भी यही कहता है,

कि वाल्या का महर्षि वाल्मीकि बनना संभव है।

यदि ऋत का सीमित स्वाध्याय हो,

तो मनुष्य केवल एक शिकारी बन सकता है।

लेकिन यदि ऋत के अध्ययन से सत्य का बोध

और उसका अनुभव प्राप्त करने के लिए

‘मानुषम के स्वाध्याय’ की शुरुआत हो जाए,

                                      तो मनुष्य से बोधिसत्व प्रकट हो सकता है।

इस प्रकार,

सत्य की दिशा में आचरण करते हुए,

अपने भीतर की मानवता का विकास और मानवीयता की खोज

करने के लिए शिक्षावल्ली में यह सूत्र बताया गया है:
'
मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च।'

सत्य और मानुष का स्वाध्याय तो किया जा सकता है, लेकिन इन दोनों का प्रवचन कैसे किया जाए?"

महात्मा गांधी तथा कई संतों के बारे में एक ही जैसी ऐक कहानी प्रचलित हैं। एक बार, एक मां अपने बेटे को लेकर एक महात्मा के पास गई और उनसे शिकायत की कि उसका बेटा बहुत अधिक मीठा खाता है। उसने महात्मा से कहा, 'आप मेरे बेटे को समझाइए कि यह गलत है, वो मीठा खाना कम करे।' महात्मा ने उन दोनों को आठ दिन बाद आने को कहा।

आठ दिन बाद, महात्मा ने बच्चे से कहा, 'बेटा, बहुत ज्यादा मीठा खाना सेहत के लिए अच्छा नहीं है, आपको खाने मे मीठी चीजें कम करनी होंगी।' जब महात्मा ने यह सलाह दी, तो मां ने आश्चर्य से पूछा, 'महात्माजी, इतनी छोटी बात बताने में आपने इतने दिन क्यों लगाए? यह तो आप पहले दिन ही कह सकते थे!'

इस पर महात्मा ने उत्तर दिया, 'यदि किसी चीज़ को न करने की सलाह देनी हो, तो सबसे पहले मुझे खुद उस पर अमल करना चाहिए। इसलिए, मैंने आठ दिन तक मीठा खाना छोड़कर देखा और तब जाकर तुम्हारे बेटे को यह उपदेश दिया।

व्यक्ति का आचरण ही मानुषम का सच्चा प्रवचन दर्शाता है।

हम अपने आचरण से ही यह प्रवचन कर सकते हैं। प्रवचन स्वाध्याय का प्रकटीकरण है। लेकिन प्रवचन करते समय जो कुछ भी कहा जाए, उसका उद्देश्य श्रोता या दर्शक के ज्ञान में वृद्धि करना और उनके व्यवहार में बदलाव लाना होना चाहिए। यही प्रवचन का असली उद्देश्य है।

प्रवचन का अर्थ है किसी बात को स्पष्ट करना और समझाना। प्राप्त ज्ञान के प्रसार के लिए व्याख्यान, कीर्तन जैसी शैक्षिक विधियों का सहारा लिया जा सकता है। लेकिन प्रवचन के माध्यम से व्यक्ति के मन और भावनाओं को छूने के लिए कहानियों का प्रभावी उपयोग किया जा सकता है, ताकि व्यक्ति बदलाव की दिशा को अनुभव कर सके।

सत्य और मानवता के गुणों का सच्चा प्रवचन केवल अपने आचरण में बदलाव लाकर और उसी के अनुसार जीवन जीने का उदाहरण प्रस्तुत करके ही किया जा सकता है। व्यक्ति के विकास का एक जीताजागता उदाहरण प्रस्तुत करना ही "मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च" का वास्तविक अर्थ है।

यदि ‘ऋतम,’ ‘सत्यम,’ ‘तपः,’ ‘दमः,’ और ‘शमः’ के विषय में स्वाध्याय और प्रवचन का वास्तविक अभ्यास शुरू किया जाए, तो हम 'मानुषं' के लिए स्वाध्याय-प्रवचन के मार्ग के यात्री बन सकते हैं।

प्रशांत दिवेकर

ज्ञान प्रबोधिनी, पुणे

Comments

Popular posts from this blog

बौद्धिक विकसनासाठी वाचन

  बौद्धिक विकसनासाठी वाचन ‘वाचन कर’ असे सुचवल्यावर काहीजणांना आनंद होतो तर अनेकजणांच्या कपाळावर आठ्या उमटतात. का वाचायचे ! कसे वाचायचे ! कशासाठी वाचायचे ! वाचताना काय करायचे ! वाचून झाल्यावर काय करायचे ! वाचून काय होणारें !!     असे अनेक प्रश्न , प्रतिक्रिया अनेकांच्या मनात डोकावत असतात. त्याची उत्तरे शोधण्याचा जो प्रयत्न करतो त्याला ‘वाचन कर’ सुचवल्यावर आनंद होण्याची शक्यता जास्त असते. वाचकाचा   पहिला सामना होतो तो वाचनाच्या तंत्राशी. अक्षरे, जोडाक्षरे , विरामचिन्हे अशा सांकेतिक लिपीतील चिन्हांशी मैत्री करत वाचक अर्थापर्यंत म्हणजेच शब्दापर्यंत येऊन   पोचतो आणि इथे खरे वाचन सुरू होते. अनेक वाचक या सांकेतिक चित्रांच्या जंजाळातच गुरफटतात. चिन्हांशी मैत्री झाली की अर्थाच्या खोलात डुबी मारण्यासाठी वाचक,   शब्द आणि शब्दांच्या अर्थछटा,   समानार्थी, विरुद्धअर्थी शब्द, वाक्प्रचार, वाक्य अशा टप्प्यात प्रवेश करतो. वाक्याला समजून घेत परिच्छेद, निबंध अशा शब्दसमूहात वाचक प्रवेश करतो. शब्दाच्या, वाक्याच्या अर्थछटा समजून घेत पूर्वज्ञानाशी सांगड घालत आपल्...

Talk on Indian Knowledge Systems in Curriculum @ Samvit Sangam

  Talk on Indian Knowledge Systems in Curriculum @ Samvit Sangam Namaste to all. I feel honoured to speak on Indian Knowledge Systems in Education at Samvit Sangam , organized by Samvit Research Foundation. I had the privilege to represent Jnana Prabodhini and speak at Samvit Sangam — a one-day symposium on the integration of Indian Knowledge Systems (IKS) in school education. I’ll keep to the time and share a few key points and practices from Jnana Prabodhini, so we can stay on track with the schedule. In the inaugural session, Anuragji raised important questions regarding the term Indian Knowledge System —its acronym IKS, and whether we ought to replace it with Bhartiya Gyan Parampara . For clarity, I will continue to refer to it as IKS-Parampara . The distinction between “ Indian Knowledge System ” and “Bhartiya Gyan Parampara” is significant. The English term “system” invokes several dimensions: What is the foundation of this system? What are the sources of its knowl...

From Pages to Naturalists' Insights

                                            From Pages to Naturalists' Insights                                               Learning while Reading:                                                    Cry of the Kalahari I am a voracious reader, always eager to explore different genres of literature across various domains of knowledge. As a Maharashtrian and initially a Marathi medium student, I preferred reading in Marathi but gradually transitioned to reading books in English. Before pursuing natural science for my graduation, I was introduced to the lives and works of naturalists through books like Ashi Manasa Ashi Sahas, Chitre An...