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Nana Saheb Peshwa II and Swami Dayanand Saraswati

Nana Saheb Peshwa II and Swami Dayanand Saraswati:

Interactions at Kumbha Mela 1855

 and Amidst the First War of Independence

In honour of Nana Saheb Peshwa II's 200th birth anniversary this year, we acknowledge his pivotal leadership during the First War of Independence. Born on May 19, 1824, Nana Saheb emerged as a significant figure in the 1857 revolt against the British East India Company's rule. The 1857 First War of Independence was a widespread Indian uprising against the rule of the British East India Company, aiming for liberation and autonomy from colonial oppression.

"Maza Pravas" is a significant Marathi travelogue by Vishnubhat Godse, chronicling his extensive travels across central and northern India during 1857-1858.

I was in search of such contemporary write-ups, as this firsthand account can serve as a crucial contemporary source, providing valuable insights into the events during the 1857 First War of Independence against British rule.  Recently, I discovered a book titled "Yogî ka Atma-Charitra" by Maharshi Dayanand Saraswati.

The book "Yogî ka Atma-Charitra" details Swami Dayanand's experiences in his yogic journey, education, and involvement in the 1857 First War of Independence, written at the request of Ishwar Chand Vidyasagar. He entrusted the manuscript to his Bengali Pandit friends, requesting them not to publish it during his lifetime.

This book also mentions interactions between Nana Saheb Peshwa II and Maharshi Dayanad Saraswati during the Kumbha Mela at Haridwar in 1855 and after the First War of Independence.

Extracts from the book mentioning interactions between Nana Saheb Peshwa II and Maharshi Dayanad Saraswati are given below.


योगी का आत्मचरित्र

महर्षि दयानंद सरस्वती

९.  स्वदेश और स्वधर्म रक्षार्थ व्यापक आन्दोलन

१.    क्रान्तिकारी नेताओं का शुभागमन:- नील पर्वत में मैंने वहाँ चण्डीस्थान के संन्यासी रुद्रानन्द से सुना था कि भारत-व्यापी प्रजा-जागरण और विप्लव-प्रचेष्टा के और भविष्यत् क्रान्ति-युद्ध के नायक, नेता और कर्णधार लोग अति शीघ्र साधु-संन्यासियों के दर्शन और देश की परिस्थिति समझाने के लिये हरिद्वार मेला में आ रहे हैं। ये लोग नील पर्वत में भी आयेंगे। मेरे अन्दर भी उनके दर्शन के लिये और फिर उनसे वार्तालाप करने के लिये प्रबल इच्छा पैदा हो गई थी।

अब तीन रोज बाद ही पाँच अज्ञात नामा और अपरिचित सज्जन हमारे अति संकीर्ण कुटीर के सम्मुख आ कर पूछने लगे- "आबु-शैल से आये हुये महात्मा जी कहाँ हैं? हम लोग उनसे मिलना चाहते हैं।" मैंने परिचय दे दिया था। उन लोगों ने भी अपने-अपने परिचय दिये थे।

उनमें प्रथम थे द्वितीय वाजीराब पेशवा के दत्तक पुत्र धुन्धु पन्थ (नाना साहब)। द्वितीय थे उनके बन्धु भाई बाला साहब। तृतीय थे उनके अजीमुल्ला खाँ। चतुर्थ थे तात्या टोपे। पंचम थे जगदीश पुर के जमींदार बा० कुंवर सिंह।

२.    नानासाहब के प्रश्न का उत्तर:- ये पाँच सज्जन प्रणिपात करके मेरे सम्मुख बैठ गये थे। नाना साहब ने कहा- "महात्मा जी! विदेशी और विधर्मी अंग्रेज आकर स्वदेश और स्वधर्म को धीरे-धीरे ग्रास कर रहे हैं। इस को किसी तरह से निवारण करना चाहिये और किस तरह से रोकना चाहिये- इसके बारे में आपकी राय क्या है? हम लोग हरिद्वार में आये हुए खास-खास साध -संन्यासीयों से इस बात पर अभिमत लेते हैं।"

३.   मेरा अभिमतः - किसी विदेशी राजा को किसी देश पर हुकूमत चलानेका हक नहीं है। अंग्रेज विदेशी हैं। इसलिये भारत पर उसका शासन चलाने का अधिकार नहीं है। विदेशी शासक विदेशी शासितों को शोषण करके ही अपनी समृद्धि करते हैं। अंग्रेजों की समृद्धि भारत के शोषण पर ही है। किसी अन्य बर्बर असभ्य देश पर किसी सुसभ्य जाति का शासन उस देश के कल्याण के लिये हो सकता है। भारत असभ्य देश नहीं है और अंग्रेज भारतीय से ज्यादा सुसभ्य भी नहीं है। केवल वे हिंस्र पशु की तरह जबरदस्ती से शासन चला रहे हैं, जिसको भारत वर्ष नहीं चाहता है। भारत जैसे न्यायप्रिय सुसभ्य और पुराने देश को पद दलित करना महापाप है और इसको सहन करना और अधिक महापाप है, भारत जब प्राण-पन से बोलेगा कि हम अंग्रेज को नहीं चाहते हैं, तब ही अंग्रेज भारत शासन छोड़ने के लिये बाध्य होगा।

४.    बाला साहब के प्रश्न का उत्तरः - द्वितीय सज्जन बाला साहब ने जिज्ञासा की- "हमारे अपने दोष या त्रुटि क्या हैं जिससे हमारी ऐसी दुर्दशा है ? इस पर आपका क्या अभिमत है?

५.   मेरा अभिमतः - युधिष्ठिर दुर्योधन, जयचन्द, पृथ्वीराज, मानसिंह प्रतापसिंह में जो भ्रातृकलह आत्मविरोध था, वही भारत के सर्वनाश का मुख्य कारण है। आगे चलकर हम देखते हैं- जब मुगल साम्राज्य का पतन हुआ तब मराठा और सिख- दोनों की शक्ति पृथकरूप से या समवेत रूप से भारतवर्ष पर शासन चलाने के लिये यथेष्ट ही थीं। लेकिन दोनों के अन्दर आत्मविरोध के कारण से भारत अंग्रेजों के हाथों में चला गया। यह अनैक्यता और आत्म-विरोध ही हमारी दुर्दशा का कारण है।

६.   अजीमुल्ला खाँ के प्रश्न का उत्तरः- तृतीय सज्जन अजीमुल्ला खाँ ने कहा- "महात्मा जी! भारत के व्यापक प्रजा-विद्रोह के बारे में आपका क्या अभिमत है?

७.   मेरा अभिमतः - मैंने जहाँ तक देखा है यह भविष्यत् गणविद्रोह का आभास मात्र ही है। यह विद्रोह साम्प्रदायिक या संकीर्ण नहीं है। इसमेंधनी-गरीब, कृषक-प्रजा, शिक्षित-अशिक्षित सब कोई सम्मिलित है। यह गण-जागरण भारत को नयी जीवनी शक्ति से संजीवित करेगा। धर्म की भित्ति पर यह आन्दोलन जब तक रहेगा। इसका भविष्यत् तब तक उज्ज्वल है। शिशु और नारियों पर जब तक आघात नहीं पहुँचेगा, तब तक इसका स्वरूप धार्मिक ही रहेगा। इस गण-जागरण में हिन्दु-मुसलमान सम्मिलित हो रहे हैं। दिल्ली के बादशाह और (विदूर) के पेशवा दोनों ही इसमें शामिल हो गये हैं। अगर हिन्दू-जनता अंग्रेज को हटाकर पेशवा को अपना राजा बनाना चाहे या मुसलमान जनता अंग्रेज को हटाकर दिल्ली के बादशाह को ही भारत का बादशाह बनना चाहे तब तो गण-जागरण व्यर्थ बन जायेगा। पेशवा और बादशाह में प्रतिद्वन्द्विता ही है।

पंजाब का प्रबल पराक्रांत सामरिक सिख-सम्प्रदाय शायद पेशवा-परिचालित इस आन्दोलन में भाग नहीं लेगा, बल्कि इसमें बाधा ही डालेगा। क्योंकि अंग्रेज और अफगान युद्ध में पेशवा ने दूसरे के राज्य हड़पने के लिये अंग्रेज को पाँच लाख रुपये ऋण-स्वरूप दिया था। इसके बाद ही अंग्रेज और सिख-युद्ध में पेशवा ने अंग्रेज पक्ष को एक हजार पदातिक सेना और एक हजार अश्वारोही सैन्य सहायता के लिये भेज दिये थे। पेशवा के इस गर्हित आचरण को शायद सिख लोग इतनी जल्दी भूलेंगे नहीं।

नेपाल के सम्बन्ध में भी बात एक सी ही है। नेपाल की राजधानी के रक्षार्थ नेपाली लोगों ने अंग्रेजों के साथ प्राणपण से युद्ध किया था। भारतीय साधारण प्रजा से उस समय कुछ भी मदद नहीं मिली थी। नेपाली लोगों ने इस बात को भुलाया नहीं है।

फिर भी इस भविष्यत् गणयुद्ध होने का परिणाम शुभ है। पलासी-युद्ध से एक शत वर्ष बाद यह गण-युद्ध होने वाला है। फिर आगे एक शत वर्ष भर युद्ध चलता ही रहेगा। तब युद्ध-जय अवश्यम्भावी होगा। बहुत कुछ आहुतियाँ अब भी बाकी हैं।

८.   तात्या टोपे के प्रश्न का उत्तर:- चतुर्थ सज्जन तात्या टोपे नेपूछा-"महात्मा जी! भारतवर्षव्यापी जिस प्रजा-विद्रोह का आभास आपकी नजर में आ गया है। उसके कारणों के बारे में आपका क्या अभिमत है?

९.    मेरा अभिमतः - इस सम्भाव्य प्रजा-विद्रोह के मूल कारणों को हम भिन्न-भिन्न श्रेणियों से विभक्त कर सकते हैं- धर्म-नीतिक, समाज-नीतिक, राज-नीतिक, अर्थनीतिक, युद्ध-नीतिक और प्रत्यक्ष।

१०.        धर्मनीतिक कारण:- भारत के करोड़ों हिन्दू-मुसलमानों को नरक से बचाने के लिये और सीधे स्वर्ग को भेजने के लिये हजारों श्वेतांग पादरी विदेशों से भारत-भूमि में, ऋषि-मुनियों के देश में आये हैं। इनका पालन-पोषण और अमीरी, भारत के गरीब प्रजाओं में कष्टप्रदत्त राजस्व से होती है। इनकी राजकीय स्थिति और प्रभाव जज मजिस्ट्रेटों से कम नहीं है। गरीब-दुःखी, असहाय-अनपढ़ और भोले-भाले लोगों को आर्थिक प्रलोभन से ईसाई बनाना ही इनका प्रधान कार्य है। अस्पताल, जेलखाने, सरकारी कार्यालय, विचारालय, पद पर नियुक्ति आदि विभागों में इनका असीम प्रभाव है। हिन्दू धर्म और मुसलमान धर्म के बारे में कटूक्ति और निन्दाबाद का प्रचार करना ही इनका धर्म-प्रचार है। अकाल-पीडित स्थानों में और गरीब गाँवों में आर्थिक सहायता के बल पर हिन्दू-मुसलमान नवजवानों को ईसाई बनाना ही इनका उद्देश्य है। बड़े-बड़े मेध ावी, कवि, साहित्यिक, वैज्ञानिक नव-जवानों को पादरियों ने भारतद्रोही बना दिया है। यह असहनीय है।

११.        समाज-नीतिक कारण:- करीब एक सौ वर्ष पहले से ही सैकड़ों, हजारों अंग्रेज व्यवसायी, राजकर्मचारी, धर्म-प्रचारक के रूप में भारतीयों के संपर्क में आये, लेकिन इन्होंने अपने को भारतीयों से सर्वथा अलग करके रखा है। सब कोई अपने को प्रभु-शासक समझ करके सभी को शासित रूप में देखते हैं। उनके लिये भारत के सब कोई और सब कुछ घृणा के पात्र और घृणा की वस्तु हैं। इससे अंग्रेज और भारतीयों के अन्दर महान व्यवधान कायम हो गया है, जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में भारतीय जन-साधारण के अन्दर प्रबल विद्रोह का भाव उत्पन्न हुआ है।

१२.        राजनीतिक कारण:- अंग्रेजों ने राज्य विस्तार के लिये युद्ध-नीति ग्रहण की है और जिससे पंजाब और पेगु (ब्रह्म देश) पर दखल कर लिया है। सिक्किम को एकांश युद्ध-नीति से ही लिया गया है। स्वत्वविलोप नीति से सतारा, सम्बलपुर, झांसी, भागल, उदयपुर, नागपुर, जैतपुर, कराउलि, वगैरह राज्यों पर भी दखल कर लिया है। कई एक राज्यों के राजपरिवारों को भत्ता देने का वचन दिया गया फिर उसको बन्द भी कर दिया गया। राजप्रसाद लुंठन किया गया, स्त्रियों को अपमानित किया गया। अराजकता के बहाने बनाकर भी कई-एक राज्यों का ग्रास किया गया। इन सब जबरदस्ती और दस्युवृत्तियों के कारण अत्याचार और अविचार के कारण जन- साधारण का मन विषाक्त, घृणा, विद्वेष और प्रतिहिंसा-परायण बन गया है। इसको सहन करना असम्भव हो गया है। प्रजा-विद्रोह का यह मुख्य कारण है।

१३.        अर्थनीतिक कारण:- अंग्रेज-शासन के एक सौ वर्षों के अन्दर देश के अपरिमित सोना, चांदी, मणि-माणिक्य-रत्नादि, सुप्रसिद्ध कोहिनूर स्यमन्तक आदि अमूल्य मणि आंग्ल-देश में भेज दिये गये। यन्त्र शिल्प के प्रवर्तन से कुटीर-शिल्प, स्वदेशी शिल्पों की जगह विदेशी शिल्पों की आमद अधिक रूप से हुई है। जिसके कारण देश की समृद्धि विनष्ट हो गयी और अन्नाभाव दुर्भिक्षादि बार-बार आने लगे। प्रजाओं के लुण्ठन के लिये घर-घर चौकीदारी-टैक्स, शिक्षा-कर, पथ-कर, जल-कर, आय-कर, शिल्प-कर और गवादि पशुओं के भूमि-चारणकर आदिकों की क्रमवृद्धि प्रचलित हुई है। जन-साधारण अन्न-वस्त्रादि के अभाव से अर्ध-मृत हो रहा है। प्रजा-विद्रोह अन्न-वस्त्राभाव के कारण स्वाभाविक गति से ही आ रहा है।

१४.         युद्ध-नीतिक कारण:- अनपढ़ मूर्ख जन-साधारण को शिक्षा-दीक्षा से वंचित करके बाल्य-किशोर यौवन अवस्था में अधिक वेतन के प्रलोभन से युद्ध-शिक्षा के लिये भेज दिया जाता है। राज्य विस्तार में ये लोगही परम सहायक हैं। इनके प्रति विदेशी सामरिक कर्मचारियों का व्यवहार अमानवोचित है। इनके वेतन से पच्चीस गुणा अधिक वेतन अंग्रेज मामूली सैनिकों को मिलता है। जब इच्छा हो, जहाँ इच्छा हो युद्ध के लिये ये लोग भेजे जाते हैं। गन्तव्य स्थान का नाम तक भी नहीं बताया जाता है। युद्ध-भूमि में मृत्यु होने पर घर में समाचार भी नहीं पहुँचता है। "सामरिक जाति" यह नाम रखकर स्वास्थ्यवान् तरुण एकमात्र पुत्र को भी परवाने के बल पर पकड़ के सामरिक कर्मचारी ले जाते हैं। छावनी में धर्म कृत्य करना, धार्मिक चिह्नादि को धारण करना अवैध और निषिद्ध है। इस पर बिन्दुमात्र आपत्ति करने से भी सामरिक विचार के अनुसार गोलियों से मृत्यु दण्ड दिया जाता है। आज से पचास वर्ष पहले भेलोर में और तीस वर्ष पहले बारीकपुर में इस प्रकार के अत्याचार और सामरिक दंडों का विधान हुआ था। दण्ड-प्राप्त सैन्यों का प्राप्त बाकी वेतन घर में नहीं भेजा जाता है । प्राणदंड का सम्वाद तक भी नहीं भेजा जाता है। बहुत रोज तक घर में पत्र आदि नहीं आने से अन्दाजा किया जाता है कि सामरिक कानून से प्राण-दण्ड मिला होगा। इस हालत को सहन करना कठिन हो गया है । प्रजा-विद्रोह का यह भी कारण है।

१५.         प्रत्यक्ष कारण:- कृष्णांग जातियों के प्रति प्रतिदिन और हमेशा जो व्यवहार सब ही जगह देखे जाते हैं। पशुओं के प्रति भी ऐसा निर्दय और निर्लज्ज व्यवहार नहीं देखा जाता है। जो कि ज्यादा रोज सहन करना कठिन है। इन सब कारणों से प्रजा-विद्रोह अवश्यम्भावी मालूम हुआ है।

१६.        श्री कुंवर सिंह के प्रश्न का उत्तरः- पंचम सज्जन श्री कुंवर सिंह ने पूछा- "स्वामी जी महाराज! युद्धों में जय अथवा पराजय अनिश्चित होती है। आपसे पूछता हूँ, "हमारा यह प्रजा जागरण या गण-युद्ध सफल होगा या विफल होगा?"

१७.        मेरा अभिमतः - स्वतंन्त्रता-युद्ध कभी विफल नहीं होता है। भारत धीरे-धीरे सौ वर्ष के अन्दर परतन्त्र बन गया है। इसको स्वतन्त्र बनाने मेंऔर सौ वर्ष बीत जायेंगे। भारत पूर्ण स्वतन्त्र बनकर फिर जगत् पर अपने गौरव को प्रकाशित करेगा। इस स्वतंत्रता-प्राप्ति में बहुत से अमूल्य जीवनों की आहुतियाँ डाली जायेंगी। मैं हरिद्वार के कुम्भ मेले में दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिये आया हैं।

१८.         प्रधान उद्देश्यः - योग सिद्ध साधकों का संधान करना। इससे मेरे पारमार्थिक कल्याण की प्राप्ति होगी।

१९.        गौण उद्देश्यः - कुम्भ मेले में भारत के और तिब्बत के सब ही साधु और महन्त लोग अपने-अपने शिष्य-सम्प्रदायों के साथ समवेत होते हैं। भारत में लाखों साधु हैं। इनके अन्दर संगठन नहीं है। सब को अपने-अपने गुरुओं के आधीन संगठित करना जरूरी है। मैं सब ही गुरुओं से मिलूँगा। देश के इस दयनीय स्थिति में सुधार के लिये मैं इनको प्रेरणा दूँगा। आप लोगों का प्रजा-विद्रोह प्रत्यक्ष रूप में रहेगा और इसका फल भी प्रत्यक्ष ही होगा। क्योंकि आप लोग मुख्य रूप से प्रत्यक्ष जीवन बिताते हैं। लेकिन साधु लोग अपार्थिव और परमार्थिक जीवन बिताते हैं। इसका स्वरूप और फल सम्पूर्ण अप्रत्यक्ष हैं। अप्रत्यक्ष फल के लिये साधु-संन्यासियों को संगठित करना बहुत ही कठिन है। इनकी संख्या कई एक लाख हैं। मैं इन त्यागी साधुओं को संगठित करने के लिये प्राण-पण से कोशिश करूँगा।

भारत की इस दुर्दशा को हटाने से भारत इतने विराट् और विशाल जन बल को प्राप्त हो जाये तो यह सौभाग्य की बात है। भारत के प्रजा-विद्रोह और साधु-संगठन के सवाल होने से देश का सर्वागींण कल्याण होगा इसमें सन्देह नहीं है। साधु संगठन की परिकल्पना को छोड़ देने से आज ही मैं आपके साथ प्रजा-विद्रोह में शामिल हो सकता हूँ। मैं हरिद्वार कुम्भ मेले से मानसरोवर, कैलाश और तिब्बत की तरफ योगी-साधुओं के सन्धान में जाना चाहता हूँ। लाखों-लाखों साधु संन्यासी हिमालय के विभिन्न ऋषि-पल्लियों में और पर्वत-कन्दरों में रह कर योग-साधना करते हैं और कोई-कोई साधना के आसनों में बैठे हुए जीवनों को छोड़ देते हैं।

पाँचों सज्जनों ने एक ही स्वर से मुझसे अनुरोध किया कि मैं योगियों के संधान में और साधुओं के संगठन में तत्पर रहूँ। प्रजा-विद्रोह के कार्य में सैकड़ों-सहस्रों आदमी पेशावर से कलकत्ते तक और मेरठ से कर्नाटक तक नियुक्त हुये हैं। लेकिन साधु-संगठन के कार्य में कोई भी नजर नहीं आता।

२०.        कमलपुष्प और चपाती :- अजीमुल्ला खाँ ने प्रश्न किया था "हमारी यह प्रजा-विद्रोह की वाणी किस रूप से और द्रुत गति से सामरिक और असामरिक जनता में बहुत ही चुपचाप प्रचारित हो सकती है। इसके बारे में आप से उपदेश चाहते हैं।

मैंने इस कार्य के बारे में बहुत ही प्राचीन सनातन पद्धति को बतला दिया। सामरिक जनता में प्रचार के लिये कमल पुष्प और असामरिक जनता में प्रचार के लिये चपातियों का व्यवहार होता है। किसी सैन्यावास में किसी एक सैन्य के पास कमल पुष्प को हाथ में देकर व्यापक युद्ध-घोषणा की तारीख बोल दी जाये तो निःशब्द से एक हाथ से दूसरे हाथों तक कमल पुष्प भी चलता रहेगा और क्रान्ति की वाणी का भी प्रचार होता रहेगा। इस से किसी को सन्देह भी पैदा नहीं होगा। इस रूप से एक सैन्यावास से दूसरे सैन्यावास तक संवाद निःसन्दिग्ध रूप और आराम से सम्वाद पहुँच जायेगा।

असामरिक जनता में प्रजा-विद्रोह की वाणी उसी रूप से प्रचार के लिये किसी गाँव में प्रवेश कर किसी व्यक्ति को व्यापक विद्रोह की ठीक तारीख बोल देने के बाद एक व्यक्ति के हाथ में चपाती दे देनी चाहिये। उससे एक टुकड़ा लेने के बाद दूसरे व्यक्ति के हाथ तक पहुँचा देना। इस रूप मे टुकड़े होकर चपाती समाप्त हो जाने से अगले व्यक्ति नई चपाती बनवाके उसी रूप से दूसरे हाथों में दे देंगे। इस प्रणाली से गाँव से गाँवों तक एवं शहर से शहरों तक व्यापक विद्रोह का समाचार प्रचारित हो जायेगा।

किसी गुप्तवाणी या पवित्र समाचार के प्रचार के लिये यह अत्यन्त प्राचीन प्रणाली है। अजीमुल्लाखाँ ने मेरी कही हुई इस प्रणाली के द्वारा सारे भारत में सर्वत्र क्रान्ति के समाचार को पहुँचाने का प्रबन्ध किया था। जिनके हाथों मेंचपाती या कमल पुष्प आ जायेगा। वे अगर इसको दूसरे हाथों में नहीं देंगे। तो भयंकर पाप के भागी बन जायेंगे। इस स्वाभाविक भय से प्रचार-कार्य चालू रहा था। इस सांकेतिक अन्यथा गुप्त प्रणाली के प्रवर्तक बहुत पुराने जमाने के व्यक्ति थे। आजकल भी यह प्रणाली चालू है।

इस सुदीर्घ आलोचना के बाद पाँचों सज्जन प्रणिपात करके चले गये। श्रीमन्त नाना साहब ने मुझको हिमालय भ्रमण के बाद कानपुर (विदूर ) में आने के लिये आमन्त्रण दिया था और मैंने आमन्त्रण स्वीकार कर लिया था।


In same chapter in section 35 he mentions about his interaction with Rani Laxmibai and in section 36 mentions about his second interaction with Nana Saheb Peshwa II   

 

३५. रानी लक्ष्मीबाई और रानी गंगाबाई:- दो-एक रोज के बाद ही झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सहचरी रानी गंगाबाई ने तीन कर्मचारियों के साथ वहाँ आकर प्रणिपात किया। परिचय पूछने पर लक्ष्मी बाई आँखों में आँसू भरकर ओजस्विनी भाषा में बोलने लगी- "मैं निःसन्तान और विधवा हूँ। मेरे पतिदेव की मृत्यु के बाद मेरे श्वसुर कुल के वैध राज्य को अंग्रेजों ने मेरेनिःसन्तान होने के बहाने से अपना राज्य घोषित कर दिया। मेरे पतिदेव के राज्य से मेरा हक चला गया और अंग्रेजों का हक बन गया। सुनते हैं कि अंग्रेज सेनापति बहुत अधिक संख्या में फौज लेकर मेरी झाँसी को छीनने के लिये आ जायेंगे।"

आँखों से आँसू बहाती हुई झाँसी की महारानी ने कहा- "महात्मा जी! मैं जिन्दा रहती हुई अपने श्वसुर-कुल के इस राज्य को दुश्मनों को नहीं दूँगी। मैं लड़ाई करती हुई मर जाऊँगी, लेकिन झाँसी को चुपचाप लुटेरे डाकुओं को नहीं दूँगी। मेरे लिये इस प्रकार के मरण को वरण करना ही कल्याणकर है। आप हमको आशीर्वाद दीजिये कि में हँसती हुई युद्ध में मर जाऊँ।''

लगभग बीस वर्ष की एक तरुणी के मुख से ऐसी बातें सुनकर समझ में आ गया कि भारतवर्ष में अभी तक वीर रमणी मौजूद हैं, भारत वीर शून्य नहीं है।

रानी को मैंने बोल दिया कि "नश्वर शरीर को कोई भी स्थाई नहीं कर सकता है। स्वदेश और स्वधर्म की रक्षा के लिये जो अपने अस्थाई शरीर को दे देते हैं, वे कभी मरते नहीं। चिरकाल के लिये वे पूजा पायेंगे। हम भगवान् से आपके लिये शुभ और कल्याण की प्रार्थना करते हैं।"

उन्होंने भी एक हजार एक रुपया मेरे सम्मुख रखकर सम्मान दिखाया। नाटोर के राजा से जैसा मैंने कहा था, उन्हें भी वैसा बोल कर रुपये लेने से असहमति प्रकट की, लेकिन इन्होंने भी नहीं सुना। इस समस्या से मुक्त होने के लिये मैंने भगवान् से प्रार्थना भी की थी, परन्तु जनता ने सुनी नहीं। जिसका जैसा सामर्थ्य हो, रुपये-पैसे देने लगे थे। इसका सदुपयोग कैसे हो मैं यही सोचने लगा। वे चलीं गई।

३६. नाना साहब आदि का पुनः आगमनः - नाना साहब और नये अपरिचित तीन-चार सज्जन सात-आठ रोज के बाद फिर हमसे मिलने के लिये आये थे। ये सब कर्म-शील और व्यस्त थे।

नाना साहब ने कहा- "हम लोग सारे भारतवर्ष में भ्रमण के लिये भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले जायेंगे। अति शीघ्र निर्दिष्ट तारीख में हम लोग चुनेहुये स्थानों में सुस्पष्ट विद्रोह का युद्ध शुरू कर देंगे। तारीख अब तक ठीक नहीं हुई है। संगठन में हम लगे हुये हैं। आप से आशीर्वाद लेने के लिये हम यहाँ आये हैं हम जहाँ रहें आपको यथासाध्य सूचित करते रहेंगे।'

मैंने कहा- "जो आशीर्वाद मैं आप लोगों को दूँगा। आप लोग उसको जरूर लेंगे। इसकी ठीक-ठीक प्रतिश्रुति दीजिये। आशीर्वाद मैं जरूर दूँगा।

उन्होंने कहा- "आपका आशीर्वाद हमारे लिये शिरोधार्य है।"

मैंने राजा गोविन्द नाथ राय और रानी लक्ष्मी बाई से प्रदत्त रुपये और जनसाधारण से प्रदत्त खुदरा पाँच सौ तैंतीस रुपये कुल छब्बीस सौ पैंतीस रुपये नाना साहब के हाथ में स्वदेश-रक्षा के लिये दे दिये। उन लोगों ने सहर्ष ग्रहण किये।

हमने कह दिया कि "जनसाधारण का नेतृत्व करना और आग लेकर खेल          करना- दोनों हीं खतरनाक हैं। मामूली भूल से भी सत्यानाश हो जाता है। हमारे पास भेंट के रूप में जो कुछ एकत्र हो जायेगा, सब कुछ आपके पास स्वदेश-रक्षा के लिये ही आशीर्वाद के रूप में भेजते रहेंगे।"

ये लोग प्रसन्न होकर चले गये। मैं भी हिमालय में योगी और साधकों को ढूँढ़ने के लिये तैयारी में लगा।

३८. साधु जनता में जागृतिः- नाना साहब और रानी लक्ष्मीबाई के प्रचार के कारण साधु लोग मेरे साथ वार्तालाप की इच्छा से एक-एक करकेसैकड़ों मेरे पास दिन भर शंका समाधान करने के लिये आने लगे। स्वधर्म-रक्षा के लिये विहित कार्यक्रम जानने के लिये वे लोग आते थे। मैंने सबसे अनुरोध किया थाः-

आप लोग अपने-अपने सम्प्रदायों के अन्तर्भुक्त रहकर ही स्वधर्म रक्षा के लिये तैयार हो जाइये । जन साधारण के अन्दर धर्म-रक्षा के लिये नया जोश उत्पन्न कीजिये। धर्म हमारे पूर्वजों की और ऋषि-मुनियों की कीर्ति और दान हैं। अहिन्दू नर-नारियों के प्रभाव से जाति और धर्म को और कतिपय विदेशी पादरी या मौलवियों की धोखेबाजी से ऋषियों के वंशजों को बचाइये। धर्म की प्राथमिक शिक्षा के प्रथम पाठ का जनसाधारण में प्रचार कीजिये। प्रयोजनानुसार धर्म-रक्षा के लिये और जाति के कल्याणार्थ जीवन दे देना परम पुण्य कार्य है। जगह-जगह धर्म-प्रचार के लिये केन्द्रों की स्थापना कीजिए। साधुओं के जीवन में दोनों ही पुण्य कार्य हैं।

प्रथम एकान्त जीवन में आत्मिक उन्नति के लिये योग साधना करना और दूसरा सामूहिक जीवन के उत्कर्ष के लिये वेद-प्रतिपादित धर्म का प्रचार करना।

इन दोनों में ही हमारा पारमार्थिक कल्याण स्थित है। आप लोग केन्द्रों के अधीन रह कर संगठित हो जाइये। स्वदेश हमारी माता है और स्वधर्म हमारा पिता है। दोनों की रक्षा के लिये तत्पर रहिये और स्वेच्छा से जो साधु लोग इस व्रत को धारण करें उनके नामों की तालिका बनाते रहिये।

साधु लोगों ने कहा:- हम लोगों ने आपसे प्रेरणा पाते ही अपनी इच्छा से पहले ही करीब ढाई सौ साधुओं के नामों की तालिका बनाई है। आप जब चाहें, ये लोग एक साथ स्वदेश रक्षा के लिये तैयार हो जायेंगे। मैने कहा:- उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम भारत में जितने सैन्यावास मौजूद है, वहाँ सुविधा के अनुसार कमल पुष्प और चपाती की बहु प्राचीन तरकीब से सैन्य और नागरिकों के अन्दर स्वदेश और स्वधर्म की रक्षा के लिये प्रेरणा और जागृति पैदा कर देना आवश्यक है।

वे लोग मेरी बातें शिरोधार्य करके चल दिये और बोले- सब के साथसम्बन्ध रखकर ही चलेंगे। मैंने केवल इंगित से बोल दिया था कि "उत्तर भारत में मेरठ की तरफ, पूर्व भारत में बारीकपुर की तरफ और दक्षिण भारत में भेलोर की तरफ जरूर जाना चाहिये। केवल आप लोग दिल्ली के योगमाया मन्दिर के पुरोहित त्रिशूल बाबा से सम्पर्क रखियेगा। वहाँ से नियमित समाचार मिलेगा और आप लोगों के समाचार भी अवश्य हमको वहाँ से मिलने चाहिये।"

 

     In 11th Chapter ‘Dakshin Bharat ki Yatra’, section 5, there is again mention of interaction between both Kanyakumari.

दक्षिण भारत कि यात्रा

५. धनुष्कोटि से कन्याकुमारी: - बहुत दिनों से निर्दिष्ट स्थानों में और निर्दिष्ट समय तक दिल्ली के योगमाया मन्दिर से प्रजा विद्रोह के बारे में कोई खबर नहीं मिली थी। मैं धनुष्कोटि से कन्याकुमारी में आया था। वहाँ रामेश्वर के भव्य मन्दिर में ठहरा। विभिन्न मन्दिरों से घूम-घूमकर साधु-संगठन कार्य में दीर्घकाल व्यतीत किया गया। साधु आपस में संगठित होने लगे। स्वदेश और स्वधर्म की रक्षा करना और वहाँ के जन साधारण के अन्दर जागृति पैदा कर देना ही साधुओं का कर्तव्य था। भारत-व्यापी प्रजा विद्रोह का प्रत्यक्ष संग्राम अचानक शुरू हो गया था। अत्याचारित और उत्तेजित प्रजागण नेतृवृन्द के नियन्त्रण से बाहर चला गया था। बहरामपुर, बारीकपुर, मेरठ आदि स्थानों से विद्रोह शुरू होकर भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों में फैल गया था। दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, बरेली और झाँसी इस क्रान्ति युद्ध के केन्द्र रहे थे। संगठन पूरा नहीं होने के कारण और अचानक विच्छिन्न और विश्रृंखल रूप से युद्ध शुरू होने के कारण युद्ध में पराजय आ गया था। विद्रोही प्रजाजन संख्या में करीब ५०-६०  हजार नेपाल की सीमा पर नेपाल राज्य के आश्रय-प्रार्थियों के रूप में हाजिर हो गये थे। नेपाल-राज श्री जंगबहादुर ने कड़ी भाषा में आश्रय देने से इन्कार कर दिया था। नाना साहब, तात्या टोपे आदि कई एक नेता विद्रोहियों के साथ थे। विद्रोही प्रजाजनों ने आत्म-रक्षार्थ जंगलों में प्रवेश किया था और वहाँ ही फल-फूल खाकर किसी रूप से देह-रक्षा करने लगे थे। बहुत प्रजा भूखी मर गई या वन्य हिंस्र पशुओं के आहार के रूप में समाप्त हो गई थी। बहुत विद्रोही पकड़े जाने पर मृत्यु दण्ड को प्राप्त हुये और कोई-कोई भाग कर आत्मरक्षार्थ इधर-उधर चले गये थे। इस प्रकार की चर्चा कन्या-कुमारी तक चल रही थी। हम इस पर अच्छी तरह सोचने लगे और दिल्ली के योगमाया मन्दिर से कन्याकुमारी में प्रजा-विद्रोह के बारे में आने वाले समाचार की प्रतीक्षा में निर्दिष्ट दिन तक बिताने का संकल्प किया था।

६. कन्या कुमारी में नाना साहब:- कन्या कुमारी भारत का अन्तिम दक्षिणी सीमा का अन्तरीप है। पूर्व दिशा का बंगोपसागर, पश्चिमी दिशा का अरब सागर और दक्षिणी दिशा का भारत महासागर इस कन्याकुमारी अन्तरीप के सम्मुख सम्मिलित हुये हैं। एक दिन भारत महासागर की तरफ मुख करके एकान्त में बैठे हुये हम भारत के धर्म और स्वतंत्रता की विराट् समस्या के बारे में आँखें बन्द करके सोच-विचार कर रहे थे। अचानक पीछे से शब्द आया:- "हम योग-माया मन्दिर के समाचार लाये हैं।"

मुख पीछे की तरफ घुमा कर देखा तीन मुण्डित मस्तक, गैरिक वस्त्रों से सज्जित और कमण्डलधारी संन्यासी आ रहे हैं। उनमें से एक को शिवाजी के सतारा सिंहासन के उत्तराधिकारी नाना साहब को पहचान लिया। शेष दोनों अपरिचित थे। तीनों प्रणिपात करके बैठ गये और तीनों की सजल दृष्टि से अवाक् से रह रहे थे।

मैंने कहा-"युद्ध-पराजय और नेपाल के जंगल में प्रवेश तक मुझे सबमालूम हो गया। इसमें हताशा या निराशा होने का कोई कारण नहीं है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिये युद्ध में जय या पराजय दोनों ही लाभदायक हैं। आप लोग भविष्यत् भारत के लिये त्याग, साहस, शूरता और निर्भीकता और स्वतंत्रता के लिये प्रेरणा देंगे।"

नाना साहब ने दोनों आगन्तुकों का परिचय दिया- एक तात्या टोपे और दूसरे मेरे साथी दुर्जय राव हैं। हम लोग इसी गुप्त वेश में आपको योगमाया मन्दिर के निर्देशानुसार ढूँढते हुये यहाँ पहुँच गये हैं। ब्रिटिश गुप्तचर हमारे सन्धान के लिये हमें ढूँढ़ रहे है। न मालूम कब हम पकड़े जायें और वध-स्तम्भों में प्राण त्याग करना पड़े। आप आशीर्वाद दीजिए। जिससे हम सहर्ष मृत्यु-वरण कर सकें और भारत के सुपुत्र पराधीन भारत को मुक्त कराने के लिए आयें।

कानपुर के एक सहस्र अंग्रेज नर-नारियाँ विपत्ति में पड़ी हुई थी। मैंने आश्वासन दिया था कि ये लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार इलाहाबाद में जा सकते हैं। इन अंग्रेजों के अन्दर सैकड़ों सिपाही ऐसे भी थे, जिन्होंने विगत सप्ताह में काशी और प्रयाग में उन सब देशी सिपाहियों के बालकों और स्त्रियों पर अत्याचार किये था। नील साहब के अत्याचारों की स्मृति ने भी इन सब देशी सिपाहियों को उत्तेजित कर दिया था। जिसके कारण उन्होंने गोलियों के द्वारा उनमें अधिकांश को मार दिया था। जो लोग बच गये थे, उनको भी बन्दी बनवा दिया। विद्रोही-प्रजा और सैन्यों पर विजय लाभ करके जब विजयी अंग्रेज सिपाही कानपुर के समीप पहुँच गये, तब विद्रोही प्रजाओं ने दो सौ से भी अधिक अंग्रेज महिलाओं और शिशुओं का बध करके उनके मृत देहों को निकटस्थ कुओं में फेंक दिया था। जनता के इस प्रकार के हत्या काण्ड के साथ मेरा बिल्कुल सम्बन्ध नहीं था। तथापि आनुषंगिक कारणों से मेरा सम्बन्ध था। इस महापाप के प्रायश्चित के लिये मैं अपने देह को प्रज्ज्वलित अग्निकुण्ड में आहुति के रूप में डाल दूगाँ। मैंने ऐसा ही संकल्प कर लिया है।"

मैंने कहा- "आपका इस प्रकार का संकल्प भूल है। आत्महत्या तो मानसिक विकार या कमजोरी से होती है। आत्मत्याग दूसरा कुछ है। मानसिक बल औरतेजस्विता के बिना आत्मत्याग नहीं बनता। आप तेजस्वी पुरुष हैं। लेकिन संन्यासीयों के वेश को गुप्त रूप से ग्रहण किया है। आप इस गैरिक वस्त्र को सत्य रूप से ग्रहण कीजिए। भारत के पश्चिम सीमा की तरफ किसी मठ मन्दिर में रह कर आप जन सेवा के लिए जीवन दान कीजिए। मनुष्यों को पारमार्थिक कल्याण के लिए उपदेश दीजिये। ऐहिक कल्याण के लिए रोगियों को विना मूल्य वृक्षों के मूल और पत्ती से औषध बनवा के वितरण करते रहिये। मृत्यु तक शान्ति और आनन्द के साथ शेष जीवन बिता सकेगें। आप आत्महत्या कभी न करे। हमारे इस उपदेश को तीनों ने ही समान रूप से ग्रहण किया और तीनों के वहाँ से चलने से पहले मैंने नाना साहब को संन्यास देकर उनका नाम दिव्यानन्द स्वामी रख दिया था। शेष दोनों ने संन्यास लेने का साहस नहीं किया। दिव्यानन्द ने " ऐसा ही होगा। भगवान् की इच्छा पूर्ण हो" ऐसा कहा और तीनों ही वहाँ से चल दिये।

Extract is from the book titled Yogi ka Aatmacharitra by Maharshi Dayanand Saraswati available at

https://www.aryagan.org/pdf/literature/swami-dayanand-literature/Yogi-ka-Atamcharitra.pdf

Visit to read further about life and work of Maharshi Dayanand Saraswati.

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