वंदे गुरु परंपरा
गुरुपूर्णिमा अर्थात ज्ञान परंपरा के वाहक बनने का दिवस
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत ॥ (४-१)
भगवद्गीता
में भी श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए ज्ञान की परंपरा का उल्लेख करते हैं।
वे कहते हैं – "मैंने यह अविनाशी योग सूर्य को बताया।
सूर्य ने इसे मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया।"
भारतीय
परंपरा में जब भी नए ज्ञान और तत्त्वज्ञान की शाखाओं का वर्णन किया जाता है, तब इस तरह की गुरु परंपरा की विरासत का भी उल्लेख किया जाता है क्योंकि
ज्ञान की परंपरा के संक्रमण से ही ज्ञान में वृद्धि होती है। यह परंपरा ज्ञान को विस्तार और गहराई प्रदान
करती है।
ज्ञान
प्रबोधिनी ने पथप्रदर्शक तथा मार्गदर्शक के रूप में चार महान व्यक्तित्वों — समर्थ रामदास, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और योगी अरविंद —
को चुना है। इनमें से एक प्रमुख व्यक्तित्व हैं समर्थ रामदास। समर्थ रामदास एक महान संत, समाजसुधारक और
राष्ट्रनिर्माता थे। उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज को आध्यात्मिक मार्गदर्शन
दिया और धर्म, शौर्य व सेवा के आदर्श स्थापित किए।
समर्थ रामदासजी
ने जनजागृति, संगठन और आत्मबल द्वारा राष्ट्र को सशक्त करने
का कार्य किया। कवि वामन पंडित ने उनकी महानता का गुणगान करते हुए
निम्नलिखित श्लोक की रचना की है।
शुकासारखे पूर्ण वैराग्य ज्याचे।
वसिष्ठापरी ज्ञान योगेश्वराचे ।।
कवि वाल्मिकीसारखा मान्य ऐसा ।
नमस्कार माझा सद्गुरू रामदासा ।।
जयजय रघुवीर समर्थ ।।
इस मराठी काव्य का सार्थक
हिंदी अनुवाद इस प्रकार है :
जिसने
शुकदेव जी के समान पूर्ण वैराग्य को अपनाया,
जो वसिष्ठ ऋषि के समान ज्ञान और योग में पारंगत है और जिसकी काव्यप्रतिभा
कवि वाल्मीकि की भाँति सर्वमान्य है,
ऐसे मेरे सद्गुरु रामदास को मैं नमस्कार करता हूँ।
जय जय रघुवीर समर्थ!
समर्थ
रामदास स्वामी का वर्णन करते समय शुक, वसिष्ठ और
वाल्मीकि — इन तीन महान विभूतियों का उल्लेख क्यों किया गया है? ये व्यक्ति कौन थे? क्या इनके विशिष्ट गुणों का
समन्वय रामदास स्वामी में हुआ था, इसीलिए उन्हें
"सद्गुरु" की उपाधि प्राप्त हुई?
ऐसे
अनेक प्रश्न श्लोक का पाठ करते समय मन में सहज ही उत्पन्न होते हैं।
तो
फिर शुक, वसिष्ठ और वाल्मीकि — ये महान व्यक्ति कौन थे?
वेदव्यास के पुत्र शुक
मुनी को "वैरागी" क्यों कहा
गया है?
शुक
मुनि की आश्रम की शिक्षा पूर्ण होने के बाद, वेदव्यास ने शुक मुनि से कहा कि वे अपनी अंतिम परीक्षा के लिए जनक राजा के
पास जाएं। शुक मुनि जनक के राजमहल पहुंचे और द्वारपाल से निवेदन किया कि वह उनके
आगमन की सूचना राजा जनक तक पहुंचाए। द्वारपाल ने जनक को सूचना दी। जनक ने उत्तर
भिजवाया: "जब तक मैं न बुलाऊं, तब
तक उन्हें वहीं प्रतीक्षा करने को कहो।"
राजा की
आज्ञानुसार द्वारपाल ने शुक को बुलावा आने तक
प्रतीक्षा करने के लिए कहा । शुक वहीं द्वार पर खड़े
रहे। कितनी देर?क्षण बीते, पहर बीते,
एक दिन ढला, फिर दूसरा आया और चला गया — ऐसे
लगातार तीन दिन और तीन रातें बीत गईं। शुक मुनि वहीं स्थिर खड़े रहे। उनके मन में
न कोई शिकायत, न क्रोध, न अधीरता, वे पूरी शांति और धैर्य के साथ राजा के संदेश की
प्रतीक्षा करते रहे।
चौथे
दिन,
गाजे बाजे के
साथ, स्वयं राजा जनक अपने मंत्रियों और दरबार के अन्य अधिकारियों सहित शुक के स्वागत के लिए द्वार पर आए। जनक ने शुक को सुवर्ण पालकी में बिठाया
और राजकीय सम्मान के साथ महल के एक भव्य कक्ष में ठहराया। उस कक्ष में सभी सुख-सुविधाएं थीं — पंचपक्वान्न,
गद्दे-बिछौने, नृत्य-संगीत, सेवक-सेविकाएं — परंतु इन भोगों का शुक के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
राजा
जनक
शुक के व्यवहार पर निरंतर गहरी नजर रखे हुए थे।
अगले
दिन दरबार में जनक ने अनुपम सौंदर्य वाली नर्तकियों का कार्यक्रम आयोजित किया।
नृत्य के बीच में उन्होंने शुक के हाथ में दूध से लबालब भरा एक पात्र थमाया और
कहा:
"इस पात्र से एक भी बूंद गिराए बिना
पूरे महल की सात परिक्रमा करो।" शुक मुनि ने पात्र लिया,
उसकी धार पर दृष्टि स्थिर की और अत्यंत सावधानी व एकाग्रता के साथ
बिना एक भी बूँद छलकाए सातों चक्कर पूरे कर लिए और पात्र जनक को
लौटा दिया।
राजा
जनक अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले: "महामुनि, मैंने आपको कई प्रकार से परखा। आपके पिताजी चाहते थे कि आप मुझसे कुछ
सीखें, लेकिन अब मुझे यह स्पष्ट हो गया है कि आप को सिखाने
जैसा कुछ भी मेरे पास नहीं है — बल्कि मुझे
इस बात का अनुभव हुआ कि मुझे ही आपसे
बहुत कुछ सीखना बाकि है।
शुक मुनि की तरह अपने उद्देश्य पर अटल रहने वाला
नारायण अर्थात समर्थ रामदास,
बारह वर्ष की आयु में नासिक आए, बारह वर्षों तक स्वाध्याय द्वारा ज्ञान अर्जित किया,
देश भ्रमण किया, समाज को
समझा और जीवन भर
धर्म की स्थापना के लिए समर्पित रहे।
शुक
मुनि के समान अपने लक्ष्य से विचलित न होकर
वैराग्यपूर्ण
जीवन पथ पर अग्रसर समर्थ रामदास!
ज्ञानी
जनों की सभा का नेतृत्व करने वाले, न्याय सभा में
न्याय देने वाले,
और
रणकर्कश श्रीराम के गुरु वसिष्ठ ऋषि।
वसिष्ठ
ऋषि के समान ज्ञानवान और ज्ञान का दान करने वाले समर्थ रामदास!
वाल्मीकि
जिन्होंने प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना की,
उन्हीं के समान, दासबोध, मनाचे
श्लोक, करुणाष्टक, आरत्यां
जैसे
विविध प्रकार की काव्य- रचनाएं करने वाले समर्थ
रामदास!
इसीलिए
कवि वामन पंडित ने इन तीनों महान विभूतियों का उल्लेख कर समर्थ रामदास स्वामीजी के
गुणों का स्तुति-गान अर्थात स्तवन किया है।
समर्थ
रामदास के चरित्र पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट होता है कि बचपन से ही उनके मन में दो
तरह के प्रश्न उठते रहे, उन्हें हमेशा सताते रहे।
पहला
प्रश्न अपने आस-पास की सृष्टि के बारे में, सृष्टि के रचयिता/ स्रष्टा के विषय में था। नासिक
क्षेत्र में किए गए अध्ययन के बाद दासबोध, मनाचे
श्लोक, करुणाष्टक जैसी
रचनाओं के माध्यम से उन्होंने इन सृष्टि के बारेमें उठे
अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए अपना संपूर्ण जीवन ज्ञानयोग में बिताया।
दूसरा
प्रश्न था — जब उनके गांव में सुल्तान के चार सिपाही
शिपुर्डे
?आकर मनमानी लूटपाट करते हैं, तो गांव वाले
उनका विरोध क्यों नहीं करते?
उनकी
भारत भ्रमण यात्रा के दौरान समाज की गुलामी और स्वतंत्रता की आकांक्षा से जुड़े ये
प्रश्न औरभी प्रखर हुए।
इन
सवालों के समाधान के लिए, समाज को बल देने और जागरूक करने
हेतु समर्थ रामदास ने ज्ञानयोग के साथ कर्मयोग का भी अभ्यास किया। उन्होंने
पूरे देश में रामदासी संगठन का जाल फैला कर समाज को संगठित किया और उसे स्वराज्य
निर्माण के कार्य के लिये आवश्यक बलोपासना के लिए प्रेरित किया।
ज्ञानयोग
और कर्मयोग दोनों का समन्वय करने वाले समर्थ
रामदास शुक, वसिष्ठ और वाल्मीकि जैसे ज्ञान परंपरा के
सशक्त प्रतिनिधि हैं। इसलिए गुरुपूर्णिमा पर उन्हें श्रद्धा और सम्मान के साथ
याद किया जाता है।
गुरु
पूर्णिमा को 'व्यास पूर्णिमा' के नाम
से भी जाना जाता है। आखिर कौन थे महर्षि व्यास?
'व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।
पराशरात्मजं
वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥'
अर्थात् — जो वसिष्ठ ऋषि
के प्रपौत्र, शक्ति ऋषि के पौत्र, पराशर
ऋषि के पुत्र और शुकदेव ऋषि के पिता हैं, ऐसे तपोनिधि महर्षि
व्यास को मैं प्रणाम करता हूँ।
महर्षि
व्यास महाभारत और श्रीमद्भागवत जैसे महान ग्रंथों के रचयिता थे। वे समस्त वेदों के
ज्ञाता थे, उन्होंने वेदों के अध्ययन की पद्धति स्थापित
की और उस परंपरा को आगे बढ़ाया। इसलिए वे ज्ञान की अखंड परंपरा के अग्रणी
प्रतिनिधि माने जाते हैं।
इस ‘व्यास परंपरा’ की छाया हमारी भाषा में भी दिखाई
देती है। । इसीलिए वक्ता जिस स्थान से अपने विचार प्रस्तुत करता है, उसे 'व्यासपीठ' कहा
जाता है। अर्थात, वक्ता से यह
अपेक्षा की जाती है कि वह ज्ञान की इस महान ज्ञान परंपरा का प्रतिनिधित्व
करे। अर्थ यह है कि वक्ता केवल बोलने वाला न हो, बल्कि
उसे ज्ञान की उस महान परंपरा का सच्चा प्रतिनिधि भी होना चाहिए — यही समाज की
अपेक्षा है।
परमाणु विज्ञान के क्षेत्र में,
जे. जे. थॉमसन, अर्नेस्ट रदरफोर्ड, और जेम्स
चैडविक ने
परमाणु की संरचना को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ये तीनों कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय
के कैवेंडिश प्रयोगशाला से जुड़े थे,
जो भौतिकी अनुसंधान का एक ऐतिहासिक
केंद्र है।
इनके क्रांतिकारी कार्य—
इलेक्ट्रॉन की खोज, परमाणु का नाभिकीय मॉडल, और
न्यूट्रॉन की खोज—
आधुनिक परमाणु सिद्धांत की नींव
हैं।
ये वैज्ञानिक जिज्ञासा और खोज की
अखंड ज्ञान परंपरा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं,
जो गुरु से शिष्य तक पीढ़ी दर पीढ़ी
संचारित होती आ रही है।
प्राइमेटोलॉजी के क्षेत्र में,
पेलियोएंथ्रोपोलॉजिस्ट लुई लीकी ने
अपने छात्रों का मार्गदर्शन किया—
जेन गुडॉल (जिन्होंने चिंपांज़ियों
का अध्ययन किया), डायन फॉसी
(गोरिल्ला),
और बिरुते गाल्डिकास (ओरंगुटान) ने
प्राइमेट्स के अध्ययन में महत्वपूर्ण कार्य
किया।
उन्होंने अवलोकन पर आधारित
क्षेत्रीय शोध की एक सशक्त परंपरा स्थापित की।
उनका कार्य, जिसे आमतौर पर 'लीकी स्कूल'
के नाम से जाना जाता है,
प्राइमेट व्यवहार और मानव विकास की
हमारी समझ को व्यापक बनाया है।
लीकी स्कूल ऑफ़ प्राइमेटोलॉजी,
अवलोकन, धैर्य और सहानुभूति पर आधारित,
ज्ञान परंपरा का प्रतीक है।
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में,
भारतीय द्रष्टा जैसे विक्रम साराभाई, सतीश धवन, वसंत गोवरिकर
और ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने
ISRO (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान
संगठन) में
कल्पकता, वैज्ञानिक जिज्ञासा, वैज्ञानिक खोज और वैज्ञानिक
उत्कृष्टता
की एक मजबूत ज्ञान परंपरा की
स्थापना की और उसे विकसित किया।
यह संस्था भारत की नवाचार क्षमता
और अंतरिक्ष अन्वेषण की आकांक्षाओं का प्रतीक बनी हुई है।
उनके नेतृत्व और मार्गदर्शन के तहत,
उन्होंने एक सजीव ज्ञान परंपरा
का निर्माण किया,
जो आने वाली पीढ़ियों के भारतीय
वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को प्रेरित करती रहेगी।
गुरु पूर्णिमा केवल अपने गुरुओं
के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन नहीं है,
बल्कि यह उन्हें और उस ज्ञान
परंपरा को सच्चे मन से नमन करने का अवसर भी है,
जिसे उन्होंने पूरे समर्पण से
संजोया और आगे बढ़ाया है।
इस पावन दिवस पर आइए हम संकल्प
लें—
कि हम इस महान ज्ञान परंपरा के
दीपधारी बनें,
इसे संजोएँ, आगे पहुँचाएँ,
और इस शाश्वत, सतत प्रवाहित ज्ञान-गंगा को जीवित रखें।
प्रशांत
दिवेकर
ज्ञान
प्रबोधिनी, पुणे
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