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सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।

 सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।

प्रकृति के सानिध्य में रहकर उसके साथ एकत्व का अनुभव करना, स्वाध्याय का प्रथम सूत्र है, जो हमें ब्रह्मांड के निर्माण और उसके रहस्यों को जानने की प्रेरणा देता है।

जड़-चेतन धारणाओं से जुड़ी मूलकण, वंशसूत्र, गुणसूत्र जैसी सूक्ष्मतम चीज़ों के अध्ययन से लेकर ब्रह्मांड के विस्तार के अध्ययन तक का व्यापक आयाम हमें प्रकृति के गहनतम रहस्यों में प्रवेश करने का मार्ग प्रदान करती हैं। ब्रह्मांड के विशाल विस्तार और उसकी अनंतता को समझने का प्रयास करने केलीये पहला उपनिषदिक अध्ययन सूत्र है "ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च।"।

ऋतम् का अध्ययन ब्रह्मांड के नियमों और संरचनात्मक सिद्धांतों को समझने की कुंजी है। ऋतम् का अध्ययन  केवल दार्शनिक धारणा नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांड की रचना और उसके संचालन में निहित नियमों को  वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गहराई से समझना है। यह हमें यह सिखाता है कि ब्रह्मांड किस प्रकार संतुलित और सुव्यवस्थित रूप से कार्य करता है।

ऋतम् का स्वाध्याय करते समय हम अपने परिवेश को गहराई से समझने लगते हैं। प्रकृति के रहस्यों की खोज और उनके पीछे छिपे नियमों और सिद्धांतों का अन्वेषण, इस प्रकार का स्वाध्याय  विज्ञान का स्वाध्याय’ है।

ब्रह्मांड की रचनाओं और प्राकृतिक नियमों का ज्ञान प्राप्त कर के, उनके पीछे के सिद्धांतों को समझने से क्या होगा? क्या ये सिद्धांत मनुष्य की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े प्रश्नों को सुलझा सकते हैं और उसका जीवन सरल बना सकते हैं?

 इसलिए, स्वाध्याय का अगला चरण यह है कि इन सिद्धांतों का मनुष्य को व्यावहारिक स्तर पर, दैनिक जीवन में कैसे उपयोग करना है, इसका अध्ययन किया जाए। ऐसे सिद्धांतों के उपयोजन का अध्ययन प्रौद्योगिकी का स्वाध्याय कहलाता है।

 प्रौद्योगिकी का अर्थ है विज्ञान के ज्ञान और सिद्धांतों का उपयोग करके उपकरण, प्रणालियाँ, या प्रक्रियाएँ बनाना, जिनसे मानव जीवन के प्रश्नों और समस्याओं का समाधान किया जा सके। विज्ञान नई खोजें करता है, जबकि प्रौद्योगिकी उन्हें व्यावहारिक रूप प्रदान करती है। प्रौद्योगिकी विज्ञान का उपयोग मानव समस्याओं को हल करने के लिए करती है।

ऐसी प्रौद्योगिकी विकसित करने के स्वाध्याय के दौरान, मानव जीवन की गतिविधियों को समझना, जीवन से जुड़े प्रश्नों को पहचानना, उन्हें सुलझाने के लिए अनुसंधान करना, कल्पनाओं को साकार करते हुए नई चीज़ों का निर्माण करना और उनकी उपयोगिता का परीक्षण करना आवश्यक है। इस प्रक्रिया के स्वाध्याय से विज्ञान और प्रौद्योगिकी मानव कल्याण के लिए साकार होती है।

जब ऐसी प्रौद्योगिकी विकसित हो जाती है, तो बनाए गए उपकरणों और सुविधाओं को हर व्यक्ति तक पहुँचाने के लिए उत्पादन प्रक्रिया, वितरण और मूल्य निर्धारण पर विचार करना होता है। इसे अभियांत्रिकी का स्वाध्याय कहा जाता है।

अभियांत्रिकी वह विज्ञान है, जिसका उद्देश्य समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तकनीकी नवाचार और सुधार करना है, ताकि मानव जीवन को अधिक सुरक्षित, सुविधाजनक और प्रभावी बनाया जा सके।  

"ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च" इस सूत्र में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी इन तीन चरणों के अध्ययन का समावेश होता है। विज्ञान में अनुसंधान के माध्यम से नया ज्ञान निर्माण होता है, जिसे प्रौद्योगिकी व्यावहारिक रूप में परिवर्तित कर समाज की समस्याओं का समाधान करती है, और अभियांत्रिकी उस ज्ञान का उपयोजन मानव जीवन में प्रभावी रूप से लागू करती है।

इस स्वाध्याय के माध्यम से अध्ययनकर्ता न केवल ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया को समझता है, बल्कि उसे वास्तविक जीवन में किस प्रकार उपयोग में लाया जा सकता है, इसका भी गहरा अनुभव प्राप्त करता है। ब्रह्मांड की रचनाओं और प्राकृतिक नियमों का ज्ञान प्राप्त करने के बाद, उन सिद्धांतों को समझने के बाद, मनुष्य इन सिद्धांतों का अपने दैनिक जीवन में उपयोग करना सीखता है।

लेकिन, जब अध्ययनकर्ता प्रकृति के सानिध्य में रहते हुए बाह्य जगत को जानने की कोशिश करता है, तो वह जानेअनजाने में प्रकृति के साथ एकत्व का अनुभव करता है, और इसी क्षण वह बाह्य जगत की खोज से आंतरिक जगत की खोज के लिये निकल पडता है। प्रकृति के साथ एकत्व का यह क्षण अध्ययनकर्ता को अपने आंतरिक अस्तित्व को समझने की दिशा में भी प्रेरित करता है।

मानव बुद्धि प्रकृति के नियमों का गहरा और नया अर्थ ढूंढने की कोशिश करती है, और जो अर्थ मिलता है, उसे अपने आचरण में समाहित करने का प्रयास करती है।

मटमैले और धुंधले पानी से भरा बर्तन यदि आठ-दस  घंटे स्थिर रखा जाए, तो गंदगी नीचे बैठ जाती है, और ऊपर साफ पानी रह जाता है। गुरुत्वाकर्षण बल के कारण पानी में मिली गंदगी बर्तन के तले में स्थिर हो जाती है, जिससे ऊपर का पानी निर्मल हो जाता है। यह प्रक्रिया इंसान ने निरीक्षण और अनुभव के माध्यम से सीखी। पानी के इस 'निर्मल' होने के सिद्धांत को समझकर इंसान ने जल शुद्धिकरण की तकनीकें विकसित कीं और जल शुद्धिकरण उपकरण बनाए, जिससे शुद्ध पानी की उपलब्धता ने उसका दैनिक जीवन सरल और स्वास्थ्यप्रद बना दिया।

इसी प्रकार, मन भी स्वाभाविक रूप से निर्मल होता है, लेकिन आसपास की घटनाओं, संवादों , और विवादों के प्रभाव से उसमें क्रोध, चिड़चिड़ापन और कभी-कभी द्वेष जैसी मलिनताएँ आ जाती हैं। मानवीय मन-मस्तिष्क का यह गुण विशेष है कि वह पानी के 'निर्मल' होने की प्रक्रिया को अपने जीवन और आचरण से जोड़ सकता है। जैसे पानी अपनी मलिनता को त्यागकर निर्मल हो जाता है, वैसे ही यह समझना आवश्यक है कि मन का मलिन होना स्वस्थ जीवन के लिए उचित नहीं। मन से क्रोध, भय और द्वेष जैसी गंदगी को हटाना चाहिए ताकि वह भी पानी की तरह निर्मल होकर सुखी और संतुलित जीवन का आधार बन सके।

पानी कभी स्थिर नहीं रहता। वह गुरुत्व बल के कारण जहां भी मार्ग पाता है, वहां प्रवाहित हो जाता है। पानी की इस प्रवाही प्रवृत्ति का अध्ययन कर इंसान ने जल प्रबंधन और वितरण की संरचनाएँ विकसित कीं—जैसे नहरें, तालाब, बांध और कुएं, जिनसे कृषि और जीवन के अन्य क्षेत्रों में प्रगति हुई। पानी से जुड़े वैज्ञानिक सिद्धांतों के अध्ययन ने जल प्रौद्योगिकी और जल प्रबंधन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय विकास किया।

मार्ग मिलने पर पानी कभी स्थिर नहीं रहता, वह अपनी प्रकृति के अनुसार गतिशील हो जाता है। लेकिन जब पानी स्थिर रहता है, तो उसमें सूक्ष्म जीव-जंतु पनपने लगते हैं, जिससे उसकी गुणवत्ता घट जाती है, और वह पीने योग्य नहीं रहता। इसी प्रकार, मानव जीवन भी एक छोटे, स्थिर तालाब जैसा नहीं होना चाहिए। जब जीवन स्थिरता की ओर बढ़ता है, तो मन और सोच संकुचित होती  जाती  हैं। आकांक्षाएँ सीमित हो जाती हैं, और आचार-विचार पुरानी, अप्रासंगिक परंपराओं में बंधकर सड़े हुए पानी की तरह निष्क्रिय हो जाते हैं। इसलिए, मानव जीवन को हमेशा गतिशील बनाए रखना चाहिए।

यही सबक इंसान ने पानी से सीखा। स्थिर पानी में स्थितिज ऊर्जा होती है, लेकिन उस ऊर्जा का उपयोग विद्युत उर्जा का उत्पादन करने के लिए पानी का गतिशील होना आवश्यक है। यह दृष्टांत ये दर्शाता है कि मानव जीवन में भी प्रगति और ऊर्जा का संचार तभी संभव है जब वह सतत गतिशील और विकासशील बना रहे।

मछली को जाल में फंसाने के लिए जालमें कोई खाद्य पदार्थ लगाकर मछली को आकर्षित किया जाता है। जब मछली उस ओर आकर्षित होती है, तो वह जाल में फंस जाती है। इस प्रक्रिया को समझने के बाद मछली पकड़ना एक उपजीविका के रूप में विकसित हुआ, जिससे मछली पालन व्यवसाय का निर्माण हुआ।

मछली के फंसने का मुख्य कारण उसका आकर्षण है, और यही बात इंसान पर भी लागू होती है। जो व्यक्ति जीवन में सच्चा और सार्थक विकास चाहता है, उसे मोह और आकर्षण के जाल में नहीं फंसना चाहिए। इंसान ने मछली से यह महत्वपूर्ण शिक्षा ली। जीवन के वास्तविक विकास के लिए मोह और आकर्षण बाधक होते हैं। इन्हें दूर रखकर संयमित जीवन जीने के लिए मानव समाज ने आचार-विचार के नियम और मार्गदर्शक संकेतों का निर्माण किया।

जब इंसान प्रकृति के सिद्धांतों को अपने जीवन और आचरण से जोड़ता है

और उनके आधार पर अपने व्यवहार में बदलाव लाने का प्रयास करता है,

तब 'सत्य' के स्वाध्याय की शुरुआत होती है।

 ऐसे स्वाध्याय को उपनिषदकार दूसरे चरण के स्वाध्याय के रूप में प्रस्तुत करते हैं: सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च’।

व्यवहारिक संदर्भ में सत्य को सच्चाई कहा जाता है।

सिद्धांतों का शाश्वत, कभी न बदलने वाला अर्थ तलाशना और उसी के अनुरूप अपने आचरण को ढालना ही सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च’ का सार है।

'ऋत' का स्वाध्याय करते समय इंसान ने देखा कि मधुमक्खियाँ अपने छत्ते कैसे बनाती हैं, शहद कैसे इकट्ठा करती हैं और उसे कैसे संग्रहित करती हैं। इस निरीक्षण के आधार पर इंसान ने मधुमक्खी पालन की तकनीक विकसित की, जिससे शहद, मोम आदी की उपलब्धता बढ़ाने और अपने दैनिक जीवन को सरल बनाने का अवसर मिला। उपनिषदकारों के दृष्टिकोण से यह 'अविद्या' का अध्ययन कहलाता है, क्योंकि यह अध्ययन प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने पर केंद्रित है।

लेकिन जब 'ऋत' का अध्ययन करते हुए इंसान मधुमक्खियों से यह विचार सीखता है कि उसे लगातार मेहनत करनी चाहिए, सही चीजों को इकट्ठा और संग्रहित करना चाहिए, और सभी के सहयोग से कार्य करना चाहिए, तो वह गहराई से सोचने लगता है। मधुमक्खियों के निःस्वार्थ और समर्पित आचरण से प्रेरित होकर, इंसान यह समझने लगता है कि उसे भी बिना स्वार्थ के कार्य करते हुए, सही मूल्यों और संसाधनों का संग्रह करना चाहिए। यह विचार सत्य के अध्ययन की ओर पहला कदम है।

ऐसे गहन चिंतन को उपनिषदकार 'विद्या' का अध्ययन कहते हैं। इस अध्ययन के दौरान इंसान मधुमक्खियों को केवल एक संसाधन का स्रोत नहीं, बल्कि प्रकृति से जुड़े एक जीवंत अस्तित्व के रूप में देखता है, तो सत्य के स्वाध्याय का आरंभ होता है। सत्य के इस स्वाध्याय से मनुष्य मधुमक्खी के अस्तित्व को प्रकृति का अभिन्न अंग मानकर, उसे अपने बराबर का महत्व देता है। यह दृष्टिकोण प्रकृति और मनुष्य के सह-अस्तित्व की भावना को बल देता है।  

ऋतम् का स्वाध्याय-प्रवचन करते हुए जब हम सत्य के स्वाध्याय की शुरुआत करते हैं, तो हम न केवल अपने आसपास के पर्यावरण को गहराई से समझने लगते हैं, बल्कि उस परम सत्य की ओर भी अग्रसर होते हैं, जो हर जीव और जड़ में व्याप्त है।

इस प्रकार, एक अच्छा इंसान बनने की दिशा में मनुष्य की जो यात्रा शुरू होती है, उसे 'सत्य का स्वाध्याय' कहा जा सकता है। अध्ययन का यह आयाम इंसान को विज्ञान के अध्ययन से जीवन के तत्वज्ञान के अध्ययन की ओर ले जाता है। उपनिषदकार इस प्रकार के स्वाध्याय को 'विद्या' का अध्ययन कहते हैं।

'अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतमश्नुते'इस वाक्य में जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलुओं का वर्णन किया गया है। अविद्या के अध्ययन से व्यावहारिक जीवन सरल और सुव्यवस्थित होता है, जबकि विद्या, अर्थात शाश्वत और गहन तत्वों का अध्ययन, मानव जीवन की गुणवत्ता में आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति का आधार बनता है।

ऋत और सत्य ये शब्द उपनिषदिक वाङ्मय में अक्सर एक साथ एक के बाद एक आते हैं। ऋतं का स्वाध्याय हमे केवल बाह्य जगत की जटिलताओं को सुलझाने में मदद करता है, बल्कि सत्य का स्वाध्याय हमारे भीतर छिपे अनंत ज्ञान के स्रोत को जागृत करने में भी सहायक होता है। ऋत से सत्य के स्वाध्याय से प्राप्त तत्व ही सत्य तत्व हैं, जो मनुष्य के आचार, विचार और शब्दों को आधार प्रदान करते हैं। शाश्वत सत्य का स्वाध्याय-प्रवचन करने के लिए आचरण के नियमों का निर्माण आवश्यक हो जाता है।

सत्य का आकलन करना यह एक सतत प्रयास और निरंतर स्वाध्याय-प्रवचन करते रहने का विषय है। सत्य का पूर्ण आकलन करना वास्तव में एक कठिन कार्य है।

जब हम रेलगाड़ी से यात्रा करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि पेड़ दौड़ रहे हैं, जबकि वास्तविकता में पेड़ स्थिर होते हैं और हम गतिमान होते हैं। इसी तरह, यदि प्लेटफॉर्म पर दो ट्रेनें खड़ी हों और खिड़की से देखा जाए, तो ऐसा लग सकता है कि हमारी ट्रेन हिल रही है, जबकि वास्तव में पास वाली ट्रेन चल रही होती है। इन अनुभवों में यदि पूछा जाए, "क्या पेड़ दौड़ रहे थे?" या "क्या हमारी ट्रेन हिली?" तो उत्तर हां है, लेकिन वास्तव में यह एक भ्रम होता है।

कईबर अनुभव कि मर्यादा मे हमे जो सत्य प्रतीत होता हैं, वो भासमान होते हैं; जबकि वास्तविकता कुछ और होती है। कई बार हमें परिस्थिति का पूरा आकलन नहीं हो पाता, क्योंकि हम अपनी विचार और समझ की सीमाओं के परीपेक्ष से दुनिया को देखते हैं।

सत्य का स्वाध्याय करते समय किसी वस्तु या परिस्थिति का सही आकलन करने के लिए हमें विभिन्न दृष्टिकोणों से उसे देखने, समझने और परखने की याने सत्यान्वेशण करनेकी आदत डालनी चाहिए। हर विचार और नजरिए को समझने के बाद, उचित प्रतिक्रिया देने और सही आचरण करने का अभ्यास ही सत्य का स्वाध्याय है।

यदि सत्य के स्वाध्याय और प्रवचन की बात करें, तो एक अध्ययनकर्ता के रूप में मुझे अपनी बौद्धिक क्षमता और विचारों की सीमाओं को समझना आवश्यक है। अपने ज्ञान की सीमा का एहसास होना चाहिए, क्योंकि अक्सर हम विचारों को एक विशिष्ट दृष्टिकोण से देखते हैं। मेरे आकलन को पूर्ण रूप से विकसित करने के लिए मुझे उस सोच की चौखट को तोड़ना होगा और सीमाओं को लांघना होगा। एक अध्ययनकर्ता के लिए यह समझना अनिवार्य है। इन सीमाओं को लांघने और चौखट तोड़ने के लिए 'स्व' अर्थात स्वयं के बारे में अध्ययन करना होगा, जिसे 'स्वका स्वाध्याय कहा जाता है।

मैं कौन हूँ?

मेरी क्षमताएँ और सीमाएँ क्या हैं?
मेरे अस्तित्व का उद्देश्य क्या है?
मुझे इस समय क्या करना चाहिए?

क्या करना उचित होगा ?

ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए ‘स्व’ का स्वाध्याय करना सीखना आवश्यक है।
सत्य के स्वाध्याय में
स्वतः किए गए अध्ययन (Self-Study) और
स्वयं के बारे में अध्ययन (Study about Self),
इन दोनों का समावेश होता है।

                  जो ज्ञान हमें प्राप्त हुआ है, उसके अनुसार अपनी दिनचर्या में बदलाव लाने का प्रयास करना और अपने आचरण से शाश्वत मूल्यों का प्रकटीकरण करना ही सत्य का प्रवचन है।
                 एक अभ्यासक स्वाध्याय के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है। प्रवचन के दौरान, जब वह उस ज्ञान को अपने आचरण में उतारता है, तो ज्ञान के प्रति उसकी प्रतिबद्धता और गहरी होती जाती है। जैसे-जैसे यह प्रतिबद्धता बढ़ती है, वैसे-वैसे अभ्यासक सत्यतत्त्वों को अपनी दैनंदिन जीवनचर्या में आचारधर्म के रूप में अपनाता है।

श्रुतियों द्वारा स्थापित सत्यतत्त्वों को आचारधर्म के रूप में स्वीकार करना भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों का मूलभूत सूत्र है।

यही कारण है कि उपनिषदकार मानव को दो प्रकार के अभ्यास :

स्वाध्याय (ज्ञान का अध्ययन) और प्रवचन (आचरण का अभ्यास) को

निरंतर जारी रखने की सलाह देते हैं।

सत्यंच स्वाध्यायप्रवचने च आंतरिक जागृति का साधन है।

ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च।

सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।

प्रशांत दिवेकर 

ज्ञान प्रबोधिनी, पुणे 

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