Skip to main content

ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च।

 


 ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च।

कुछ वर्ष पहले, मार्च माह में प्रशिक्षण के लिए उत्तर प्रदेश के बलिया क्षेत्र की यात्रा पर जाना हुआ। पहले दिन, शाम के समय महाराष्ट्र के भुसावल क्षेत्र से गुजरते हुए जब खिड़की से बाहर देखा, तो खेतों में एक पंक्ति में केसरिया रंग की ज्वालाओं से रौशन दृश्य दिखाई दिया। गेहूँ की कटाई के बाद, किसान खेतों में बची हुई डंठल को जलाकर खेतों को साफ कर रहे थें। दूसरे दिन सुबह जब ट्रेन मालवा क्षेत्र से गुज़र  रही थी, तो नर्मदा की घाटी में फैले खेतों में गेहूँ की कटाई में व्यस्त किसान दिखाई दियें। शाम के समय हमारी ट्रेन गंगा की घाटी जा पहुंचीं वहाँ  का नजारा थोड़ा और भिन्न था । बाहर  दूर-दूर तक  सुनहरे गेहूँ  की फसलें  खेतों में लहरा  रही थी  औऱ  किसान अपनी खड़ी फसल की कटाई की तैयारी में जुटे थे। महाराष्ट्र से गंगा की घाटी तक फसल के तीन  चरण  दिखाई दिए

 उसी वर्ष जून में,  मैं भूगोल विशेषज्ञ श्री सुरेंद्र ठाकूरदेसाई के साथ ग्वालियर ( उत्तर भारत)  से  महाराष्ट्र लगभग  उसी मार्ग से  वापस रहा था ।  जून के अंत में ग्वालियर में अत्यधिक गर्मी थी । बीच बीच में  हल्की-फुल्की  बौछार भी  पड़ी, लेकिन ठंडक का अहसास होने के बजाय पसीना बहने लगा। स्थानीय लोग उस जलवायु भरी हवा को 'उमस' कहते थे।  माथे से पसीना पोछते हुए सुरेंद्र जी बोले, " ज्ञान प्रबोधिनी स्कूल में  हिंदी में भूगोल पढ़ते वक्त 'उमस' शब्द पढ़ा था, लेकिन अब इसका अनुभव कर रहा हूँ !" स्थानीय लोग बारिश के आने का इंतजार कर रहे थे। यात्रा के दूसरे दिन  जब ट्रेन  मालवा क्षेत्र से गुजरी ,तो  नर्मदा घाटी में बारिश शुरू हो चुकी थी और खेती के काम शुरू हो गए थे। तीसरी झलक महाराष्ट्र क्षेत्र के नासिक - कल्याण  यात्रा पडाव  में मिली, जहां मूसलाधार बारिश हो रही थी और किसान धान की रोपाई में व्यस्त थे।

जब मैंने सुरेंद्र को महाराष्ट्र से उत्तर भारत और वापसी में  उत्तर भारत से महाराष्ट्र की यात्रा के दौरान देखे  इन छह   दृश्यों के बारे में बताया, तो उन्होंने मुझसे पूछा, " क्या तुम्हें इन छह दृश्यों कुछ  दिखाई देता है?"

             मुझे प्रश्न का मर्म भलीभांति समझ नहीं आया तो मैंने विस्तार से   वही छह दृश्य  दोहरा दिए।   इस  बार  श्री सुरेंद्रजी ने   उत्तर  प्राप्त करने के लिए एक सुझाव दिया कि मुझे इन सभी दृश्यों को जोड़ कर  ही देखना चाहिए क्योंकि इन छह दृश्यों में जो कुछ दिखाई देता है, वह  न केवल  मैंने सीखा है, बल्कि सिखाया भी है

 सुझाव के अनुसार जब  मैने भारत के नक्शे पर इन दृश्यों को एक साथ जोड़ा, तो यह स्पष्ट हुआ कि ये छह दृश्य चार-पाँच महीनों के मौसम में बदलाव और भारतीय मानसून की विशेषताएँ दर्शा रहे हैं  मुझे तुरंत ही मानसून के मार्गक्रमण का मानचित्र पुरी तरह समझ  आ गया।

इस चर्चा के बाद, मैं सक्रियता  से प्रकृति में मानसून  को  ढूँढने और समझने की कोशिश करने लगा। इस प्रक्रिया में मुझे एक दिलचस्प प्राकृतिक घटना से मानसून का संकेत मिला।

जुलाई में अक्सर प्रशिक्षण के लिए असम की यात्रा होती है। वहाँ मेरे मित्र श्री रवी  सावदेकर हैं जो असम के विवेकानंद केंद्र विद्यालय में काम करते हैं।  दैनिक प्रशिक्षण के बाद  कई बार उनके घर  पकौडे और आमरस पूरी  की दावत  का आस्वाद भी लेता हूं। मई माह के अंतिम सप्ताह में महाराष्ट्र में आम का मौसम लघबघ खत्म हो जाता है, लेकिन असम  में जुलाई तक आम का मौसम जारी रहता है ।

             भारत में आम का मौसम क्षेत्र के अनुसार बदलता है। दक्षिण भारत में मार्च-अप्रैल, महाराष्ट्र में अप्रैल-मई, और उत्तर भारत में मई-जून के समय आम का मौसम होता   है। मुझे यह महसूस हुआ कि गर्मी के दिनों मे तापमान में बदलाव, मानसून का मार्ग, और आम के फलने-फूलने में एक दिलचस्प संबंध है।  पेड-पौधे प्रकृति के कई संकेतों का प्रतीक होते हैं । मुझे आम के फलने-फूलने  में मानसून के आगमन का संकेत मिला।

वास्तव में,

आसपास हो रही घटनाओं को देखकर और उनका गहराई से निरीक्षण करके,

एक शोधकर्ता को उनके पीछे के कारणों का पता लगाना चाहिए।

लेकिन आजकल पढ़ाई अक्सर केवल किताबी ज्ञान तक सीमित हो कर रह गई है ।

क्या छात्र कभी यह सोचते हैं कि किताबों में दी गई जानकारी आखिर कहां से आती है? यदि यह सवाल मन में उठे और इसका उत्तर ढूंढना हो,

तो हमें अपने परिवेश को उत्सुकता और जागरूकता के साथ देखना और समझना होगा।

हम जो संकल्पना या अवधारणा सीखते हैं, वे हमारे आसपास के परिवेश में ही विद्यमान होती हैं। हमें अपने आसपास हो रही घटनाओं का निरीक्षण करते हुए प्रकृति के वैश्विक नियमों को समझने का प्रयास करना चाहिए।

प्रकृति के नियम सूत्रबद्ध और वैश्विक होते हैं। वातावरण में स्थित नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, और कार्बन चक्र, जीवों की प्रजनन श्रृंखला, और जीवन-मृत्यु का चक्र—ये सभी प्रकृति के नियमों में बंधे होते हैं। हमारे चारों ओर कई प्राकृतिक चक्र मौजूद हैं, जिनके पीछे कुछ वैश्विक नियम या सिद्धांत काम करते हैं। जैसे ज्वार-भाटा, जन्म-मृत्यु, और मासिक ऋतुचक्र—ये सभी नियमबद्ध प्रक्रियाएँ हैं।

जैसे-जैसे मनुष्य ने इन नियमों को समझना शुरू किया, उसे विज्ञान के सूत्रों की प्राप्ति हुई। इन सूत्रों को समझने के साथ ही मानव जीवन और संस्कृति का विकास हुआ। 

"ऋतु" शब्द नियमबद्धता को व्यक्त करता है। "ऋ" का अर्थ है गति। पृथ्वी अपनी धुरी पर और सूर्य के चारों ओर एक नियमबद्ध गति में घूमती है, जिसे "ऋच" कहा जाता है। इसी गति के कारण प्रकृति में होने वाला नियमबद्ध परिवर्तन "ऋतु" कहलाता है। 

निरीक्षण, प्रश्न और अनुसंधान के माध्यम से हम प्रकृति में मौजूद वैश्विक नियमों का अध्ययन करते हैं। 

तैत्तिरीय उपनिषद में यह बताया गया है कि मनुष्य को क्या अध्ययन करना चाहिए .इस अध्ययन का प्रथम सूत्र  है: "ऋतम् च स्वाध्याय प्रवचनेच।"

ऋतम् का अर्थ है प्रकृति के अटल और अपरिवर्तनीय नियम। ऋतम् वे सूत्र हैं जो सृष्टि की सुव्यवस्थित प्रणाली को दर्शाते हैं।

जड़ और चेतन पदार्थों की संरचना, उनके घटकों के गुण, उनके आपसी संबंध, इन क्रियाओं को संचालित करने वाली ऊर्जा प्रणाली, जीवों की संरचना, और उनमें होने वाली अंतःक्रियाएँ— आदी  सभी विषयों का अध्ययन आज विज्ञान और गणित के अंतर्गत किया जाता है। प्राकृतिक विज्ञानों में पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों का अवलोकन करके उन्हें समझने का प्रयास किया जाता है।

प्रकृति का अध्ययन, अर्थात् ऋतम् का अध्ययन, सबसे महत्वपूर्ण स्वाध्याय है। 

मानव स्वयं भी प्रकृति का एक अभिन्न हिस्सा है। इसलिए, परिवेश के अध्ययन के साथ-साथ प्रकृति के अध्ययन में मानव समाज में होने वाली अंतःक्रियाएँ और उनकी नियमितता का भी समावेश होता है। आहार, उद्योग, व्यवसाय, त्योहार-उत्सव जैसी सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियाँ, राज्य व्यवस्था, और मानवीय मूल्य जैसे पहलू—इन सभी के नियम मानविकी विज्ञान के अध्ययन कें विषय हैं।

ऋतम् का अध्ययन इन सभी पहलुओं का समावेश करते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है।

"देखो, पूछो, सोचो, करो, समझो" इस सूत्र के माध्यम से यदि ऋतम् का अध्ययन किया जाए, तो विज्ञान और सामाजिक शास्त्र में पुस्तकों में पढ़े गए नियमों को बेहतर समझा जा सकता है

उपनिषदकार कहते हैं कि सम्पूर्ण मानव जीवन प्रकृति, अर्थात् प्राकृतिक चक्रों पर निर्भर है। इसलिए ऋतम् का अध्ययन, अर्थात् स्वाध्याय करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रकृति के सूत्रों की खोज करना और उन्हें समझना मानव बुद्धि के लिए एक चुनौती है

 कई बार  हमारे  मन में  चारों ओर की चीजों को देखकर अनेक प्रश्न उठते हैं:, जैसें ,पेड़ पर फूल कब आते हैं? वे एक निश्चित समय पर ही क्यों खिलते हैं? पानी बहते हुए एक खास तरीके से रास्ता कैसे बनाता है? पानी को रोकने के लिए बाँध कैसे बनाया जा सकता है? बाँध बनने के बाद बहते हुए पानी की ऊर्जा कहाँ जाती है? यदि गलत स्थान पर पानी रोका जाए तो बाँध क्यों टूट जाता है?...... सोचते है तो मानो प्रश्नों कि झडीसी लग जाती है ।

इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए विज्ञान के अध्ययन की एक विधि होती है। ऋतम् का स्वाध्याय करते समय अध्ययनकर्ता को इस विधि को समझना चाहिए और उसका व्यवहार में उपयोजन (अर्थात सही प्रयोग) करना आना चाहिए।

विज्ञान की विधि एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है, जो जिज्ञासा से आरंभ होती है और सत्य की खोज तक पहुँचती है। सबसे पहले, किसी घटना या प्रक्रिया का अवलोकन किया जाता है। इसके आधार पर प्रश्न उठाए जाते हैं, जो अनुसंधान की दिशा तय करते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए परिकल्पना बनाई जाती है, जो संभावित समाधान का अनुमान होती है। इस परिकल्पना की जाँच के लिए प्रयोग किए जाते हैं। प्रयोगों के दौरान प्राप्त आँकड़ों का संग्रह और विश्लेषण किया जाता है। आँकड़ों के विश्लेषण से निष्कर्ष निकाला जाता है, जो परिकल्पना को सही या गलत सिद्ध करता है। यदि निष्कर्ष सटीक हो, तो इसे एक नियम या सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।


यह पूरी प्रक्रिया तर्क, निरीक्षण और विश्लेषण पर आधारित होती है, जो विज्ञान की प्रमाणितता और सत्यता सुनिश्चित करती है। विज्ञान की विधि हमें प्रकृति और उसके नियमों को समझने का सशक्त साधन प्रदान करती है।

विज्ञान के अध्ययन की यह पद्धति कई पीढ़ियों के अनुभव और अभ्यास से विकसित हुई है। कोई भी वैज्ञानिक अपने निष्कर्ष को अंतिम सत्य नहीं मानता. उसमें लगातार नई जानकारी जोड़ी जाती है, और ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया निरंतर आगे बढ़ती रहती है। सृष्टि के बारे में पूर्वजों द्वारा किए गए अवलोकन, उनके प्रश्न और निष्कर्ष आगे का मार्ग प्रशस्त करते हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे।

सृष्टि का अध्ययन करते हुए जो रहस्य, अर्थात् नियम, सामने आते हैं, वे गतिशील होते हैं, क्योंकि ब्रह्मांड स्वयं गतिशील है। कई बार इन रहस्यों की व्याख्या से स्थापित नियम उस युग में सार्वभौमिक और अंतिम सत्य प्रतीत होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे ऋतम् का अध्ययन गहन होता है, तो समय के स्थापित विज्ञान के सिद्धांत बदलते हैं और पुनः स्थापित किए जाते हैं।

ज्ञान के विस्तार और सुधार को स्वीकार करने से विज्ञान अधिक स्पष्ट और गहन होता जाता है। इस प्रकार, ऋतम् के नियम, चाहे वे सार्वभौमिक हों, अध्ययन और अनुसंधान के साथ विकसित होते रहते हैं।

पर्यावरण अध्ययन, विज्ञान और समाजशास्त्र के अध्यापकों के प्रशिक्षण में मैं हमेशा एक प्रश्न पूछता हूँ:

"क्या आप अपने विद्यार्थियों के मन में उनके आवास  या  परिवेश

के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करना चाहते हैं?"

यदि इसका उत्तर हाँ है, तो सबसे पहले यह प्रश्न हमारे मन में आना चाहिये कि

"क्या मेरे अपने मन में ,  एक अध्यापक के रूप में,

अपने आवास तथा परिवेश के प्रति जिज्ञासा है,?"

यदि  इस प्रश्न का उत्तर हां हो, तब एक अध्ययनकर्ता या अध्यापक ऋतम् का अध्ययन और अध्यापन करने में सक्षम हो सकता है। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया की शुरुआत के लिए जिज्ञासा अत्यंत आवश्यक है; जिज्ञासा के बिना  यह प्रक्रिया आरंभ ही नहीं हो सकती

किताबें पढ़कर जानकारी अवश्य मिल सकती है, लेकिन जिज्ञासा के बिना ज्ञान की खोज प्रारंभ नहीं होती ऐसी जिज्ञासा से प्रेरित होकर ज्ञान की खोज का सफर प्रश्न-निरीक्षण-प्रयोग/क्रिया-तर्क-विचार-आकलन-निष्कर्ष के मार्ग पर आगे बढ़ता है।

पाठशालाओं में यदि छात्रों के मन में प्रकृति और परिवेश के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है, और वे इस जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त करने के लिए ऋतम् का अध्ययन करना चाहते हैं, तो इसके लिए शैक्षणिक परियोजनाओं की आवश्यकता होती है।

प्रकल्प आधारित अध्ययन (प्रोजेक्ट बेस्ड लर्निंग) के माध्यम से, छात्र अपने मन में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का प्रयास करते हैं या अपनी कल्पनाओं को साकार करते हुए कुछ नई चीजों का निर्माण करते हैं।

अर्थात, अपने मन में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर को स्वयं के प्रयासद्वारा ढूंढना, या  अपने प्रयास से  मन में स्थापित कल्पना को  मूर्तरूप देना ही स्वाध्याय है।

प्रकल्प आधारित अध्ययन (प्रोजेक्ट बेस्ड लर्निंग) के दौरान, हम अनुसंधान के दरम्यान हमें जो कोई उत्तर मिला है, वो हम प्रस्तुति के समय दूसरों के साथ साझा करते है  और उनकी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास करते हैं। अर्थात, जो हमने सीखा और समझा है, जब हम उसे दूसरों को समझाने की कोशिश करते हैं, तो यह प्रवचन कहलाता है।

प्रवचन के दौरान, अध्ययनकर्ता अपनी जानकारी को पुनः प्रक्रिया करके प्रस्तुत करते हैं। श्रोताओं की आवश्यकता और उनकी समझ के अनुसार, प्रवचनकर्ता अपने अध्ययन का संक्षेप या विस्तार करते हैं। प्रस्तुति के समय, मंच के उद्देश्य और उसकी विशेषताओं के अनुसार, हम अपने अध्ययन को विभिन्न दृष्टिकोणों से परखते हैं और लोगों के सामने उसे प्रस्तुत करके उसकी समीक्षा करते हैं।

इसलिए, यह समझना आवश्यक है कि सिखाना, अर्थात प्रवचन करना, भी सीखने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण चरण है। प्रवचन के माध्यम से हमारी समझ अधिक स्पष्ट और गहन होती जाती है।

इसीलिए, प्रवचन  का चरण सीखने की प्रक्रिया में स्वाध्याय के बाद का एक अनिवार्य चरण माना जाता है

प्रवचन कौन कर सकता है?

निस्संदेह, वही जो स्वाध्याय के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर चुका हो!

स्वाध्याय, अर्थात अपने सवालों का उत्तर स्वयं-अध्ययन के माध्यम से खोजना,

और जो समझ में आया है, उसे दूसरों को समझाना—यही प्रवचन है।

ये अध्ययन की दो महत्वपूर्ण विधियाँ हैं।

ज्ञान निर्माण का अनुभव प्राप्त करने के लिए पहला उपनिषदिक अध्ययन सूत्र है। "ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च।"

"ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च।" (ऋतम के बारे में सीखें और सिखाएं)—यह तैत्तिरीय उपनिषद के शीक्षावल्ली के नवम अनुवाक का पहला महत्वपूर्ण अध्ययन सूत्र है, जो अध्ययन की दिशा दिखाने और ज्ञान निर्माण का अनुभव प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। यह अध्ययन सूत्र ज्ञान का निर्माण और उसके प्रसार की दिशा दिखाता है।

"ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च।"

प्रशांत दिवेकर

ज्ञान प्रबोधनी, पुणे



Comments

  1. आपने हिंदी में भी अपने विचार प्रकट करके बहुत अच्छा काम किया है। हिंदी भाषी लोगों के लिए ये सुनहरा मौका मिला है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

Manthan: Let’s Reflect on the Essence of Education: 1

  Material for Group Discussion Session Manthan: Let’s Reflect on the Essence of Education: 1 Thoughts of Maharshi Swami Dayanand Saraswati CHAPTER 2: Treats of the up-bringing of children "Mātṛmān Pitṛmān Ācāryavān Puruṣo Veda" – Śatapatha Brāhmaṇa. 1.     "Verily, that man alone can become a great scholar who has had the advantage of three good teachers, viz., father, mother, and preceptor." Blessed is the family, most fortunate is the child whose parents are godly and learned. The mother's healthy influence on her children surpasses that of everyone else. No other person can equal a mother inn her love for her children, or in her anxiety for their welfare. (Page 20) 2.     The mother's instructions to a child. A mother should so instruct her children as to make them refined in character and manners, and 21 they should never be allowed to misconduct themselves in any way. When the child begins to speak, his mother should see that he uses ...

Exploring Linguistic Diversity of Solapur

Exploring Linguistic Diversity of Solapur In a recent article on experiential learning, I shared about a Samaj Darshan activity conducted at Jnana Prabodhini, Solapur, aimed at studying the linguistic diversity of the city. Many readers appreciated the example and requested more details about the activity. After going through the records and teachers' diaries, I have written down the details of this Samaj Darshan activity focused on understanding the linguistic diversity of Solapur. At Jnana Prabodhini, Solapur, we select a theme every year that encourages students to explore various aspects of society and culture. By participating in Samaj Darshan , students gain valuable insights that help them connect more deeply with the people and places around them. The objective is to understand society; both its strengths and challenges, appreciate its culture, and develop a sense of gratitude towards the people and communities who contribute to it. This activity is practiced as wh...

सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।

  सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रकृति के सानिध्य में रहकर उसके साथ एकत्व का अनुभव करना , स्वाध्याय का प्रथम सूत्र है , जो हमें ब्रह्मांड के निर्माण और उसके रहस्यों को जानने की प्रेरणा देता है। जड़-चेतन धारणाओं से जुड़ी मूलकण , वंशसूत्र , गुणसूत्र जैसी सूक्ष्मतम चीज़ों के अध्ययन से लेकर ब्रह्मांड के विस्तार के अध्ययन तक का व्यापक आयाम हमें प्रकृति के गहनतम रहस्यों में प्रवेश करने का मार्ग प्रदान करता हैं। ब्रह्मांड के विशाल विस्तार और उसकी अनंतता को समझने का प्रयास करने के लिए पहला उपनिषदिक अध्ययन सूत्र है "ऋतं च स्वाध्याय प्रवचने च।" ऋतम् का अध्ययन ब्रह्मांड के नियमों और संरचनात्मक सिद्धांतों को समझने की कुंजी है। ऋतम् का अध्ययन   केवल दार्शनिक धारणा नहीं है , बल्कि यह ब्रह्मांड की रचना और उसके संचालन में निहित नियमों को   वैज्ञानिक दृष्टिकोणद्वारा गहराई से समझना है। यह हमें   सिखाता है कि ब्रह्मांड किस प्रकार संतुलित और सुव्यवस्थित रूप से कार्य करता है। ऋतम् का स्वाध्याय करते समय हम अपने परिवेश को गहराई से समझने लगते हैं। प्रकृति के रहस्यों की खोज और उन...