स्वाध्याय-प्रवचन : तप, दम , शम
मुझे कई बार भोसला मिलिटरी स्कूल, नाशिक जाने का अवसर मिला है। हर विद्यालय का अपना एक
बोधवाक्य होता है, और इस विद्यालय का बोधवाक्य है, 'शापादपि शरादपि'। सैनिक विद्यालय के संदर्भ में 'शर' यानी बाण का अर्थ तो तुरंत समझ में आ गया, लेकिन 'शाप' का अर्थ समझने के लिए मैंने इस
वाक्य के मूल स्रोत को खोजने का प्रयास किया। तब मुझे यह श्लोक मिला, जो भगवान परशुराम का वर्णन करता है:
अग्रतः चतुरो वेदाः
पृष्ठतः सशरं धनुः।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि।।
जिसका अर्थ है:
"जिसके पास चारों वेदों
का ज्ञान है, अर्थात जो ज्ञान में
पारंगत है,
जिसकी पीठ पर धनुष और बाण हैं, अर्थात जो शूरवीर है,
जो ब्राह्मण का तेज और क्षत्रिय की वीरता दोनों में
समर्थ है,
और जो अपने विरोधियों का सामना
श्राप से भी कर सकता है और बाणों से भी।"
आज के तंत्रज्ञान (प्रौद्योगिकी)
के युग में एक योद्धा के लिए केवल शौर्यवान होना पर्याप्त नहीं है; उसे युद्धतंत्र में ज्ञानी और कुशल होना भी आवश्यक है। इस
दृष्टि से, यह बोधवाक्य एक सैनिक विद्यालय के
लिए अत्यंत उपयुक्त प्रतीत होता है।
जब हम पौराणिक कहानियाँ सुनते हैं, तो उनमें अक्सर किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे
व्यक्ति को वरदान या श्राप दिए जाने का उल्लेख होता है। कहानियों में वरदान से
किसी को लाभ होता है, जबकि श्राप से किसी को हानि पहुँचती है
या वह नष्ट हो जाता है।
लेकिन वरदान या श्राप देने
का अधिकार किसे होता है?
कहानी में श्राप देने के बाद श्राप देने वाले व्यक्ति का
क्या होता है? यदि हम इन कहानियों को
पढ़ते समय ऐसे प्रश्न अपने आप से पूछें, तो हमें समझ में आता
है कि केवल वही व्यक्ति वरदान या श्राप दे सकता है जो ज्ञानी है और जिसने तपस्या
के माध्यम से यह ज्ञान और शक्ति प्राप्त की है।
यदि कोई ज्ञानी व्यक्ति अपने ऊपर नियंत्रण खो देता है, क्रोधित हो जाता है, या
अनुचित कारणों से श्राप देता है, तो वह अपने ज्ञान का
दुरुपयोग करता है। इसके परिणामस्वरूप उसकी शक्ति और प्रभाव कम हो जाते हैं। ऐसी व्यक्ति कहानी मे अपनी खोई हुई शक्ति और ज्ञान को पुनः प्राप्त
करने के लिए तपस्या करने निकलता है।
भारतीय कथाओं में यह प्रवाह देखने को मिलता है कि कथा-नायक
किसी उद्देश्य से तपस्या करता है। यदि उद्देश्य संकुचित, अनैतिक या व्यक्तिगत
स्वार्थभरा है, जिसका उद्देश्य किसी को
हानि पहुँचना है, तो उसे तपस्या के फल स्वरूप केवल वरदान
प्राप्त होता है। वहीं, यदि उद्देश्य सही और विश्व-कल्याण का
हो, तो उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है।
ये कथाएँ एक साधक अध्ययनकर्ता को सही उद्देश्य से तपस्या
करने, ज्ञान प्राप्त करने, और
उस ज्ञान को स्थिर बनाए रखने के लिए स्वाध्याय का मार्ग दिखाती हैं। साथ ही,
यह भी सिखाती हैं कि ज्ञान का सदुपयोग करना आवश्यक है। यदि ज्ञान का
दुरुपयोग हो, तो साधक को पुनः तपस्या के माध्यम से ज्ञान और
सिद्धि प्राप्त करनी पड़ती है।
भारतीय कथाएँ ज्ञान प्राप्ति के लिए अनुशासन, स्व-नियंत्रण, और
ज्ञान के सही उपयोग की अनिवार्यता पर बल देती हैं।
तप यानी
तपस्या का अर्थ क्या है?
तो, किसी निर्धारित लक्ष्य या उद्देश्य की
प्राप्ति के लिए
मन लगाकर, भूख-प्यास की परवाह किए बिना,
और कठिनाइयों
को सहन करते हुए जो प्रयास किए जाते हैं,
वही तपस्या
कहलाती है।
तैत्तिरीय उपनिषद के शिक्षावल्ली के अनुसार, ऋत और सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए
अभ्यास आवश्यक है। लेकिन ऐसा अभ्यास करके ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक विद्यार्थी
को अपने आचरण के स्तर पर तीन महत्वपूर्ण बातों का स्वाध्याय और प्रवचन करने का
सुझाव दिया गया है।
तपश्च स्वाध्यायप्रवचनं च।
दमश्च स्वाध्यायप्रवचनं च।
शमश्च स्वाध्यायप्रवचनं च।
तपः का अर्थ है श्रम करना, कठिनाईयों का सामना करना, और कष्ट सहन करना। यह किसी
लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विशेष रूप से किए गए शारीरिक, मानसिक, या बौद्धिक प्रयासों को दर्शाता है। तप का
मतलब है अपने लक्ष्य या उद्देश्य पर पूरी एकाग्रता और दृढ़ता के साथ अटल रहना तथा
उसे पाने के लिए हर प्रकार की कठिनाई का डटकर सामना करना।
दमः का अर्थ है दमन या संयम। रुढ़ार्थ में, किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किए गए नियंत्रण
या अत्याचार को दमन कहते हैं। दमन नियंत्रण की एक प्रक्रिया है । ऐसे स्व नियंत्रण के लिये आवश्यक
आत्म-अनुशासन की प्रक्रिया को संयम कहते है।
एक विद्यार्थी के लिए यह आवश्यक है कि वे उन इच्छाओं और
वासनाओं पर नियंत्रण प्राप्त करे जो उनके उद्देश्य की प्राप्ति में बाधा बन सकती
है। इसके लिए इंद्रियों और मन का नियंत्रण आवश्यक है, ताकि वे षडरिपुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) पर विजय प्राप्त कर सकें।
हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से बाहरी संवेदनाओं को
ग्रहण करते हैं। इसलिए ज्ञानेंद्रियों को सही दिशा में प्रेरित करने और उन पर
नियंत्रण बनाए रखने की आवश्यकता होती है। मन भी एक इंद्रिय है, और इस पर नियंत्रण आवश्यक है। इस प्रकार
अध्ययन करते समय इंद्रियों के संयमन और उनके नियंत्रण की प्रक्रिया के लिये स्वाध्याय
की आवश्यकता होती है।
शमः का अर्थ है अपने प्रयासों और उनके परिणामों के प्रति
आंतरिक संतोष और शांति। यह संतोष व्यक्ति में ऐसी स्थिरता उत्पन्न करता है कि चाहे
लक्ष्य आसानी से प्राप्त हो जाए, तो भी
उसे विशेष खुशी नहीं होती, और यदि लक्ष्य प्राप्ति में
बाधाएँ या असफलताएँ आएँ, तो भी व्यक्ति को खेद नहीं होता।
बिना अत्यधिक खुशी या खेद के, व्यक्ति निरंतर अपने उद्देश्य की दिशा में अग्रसर रहता है। इस प्रकार की
स्थिरता, शांति, और संतोष को शम कहा
जाता है। इसे प्राप्त करने के लिए इच्छाओं को शांत करना, यानी
वासनाओं से मुक्ति का प्रयास करना आवश्यक है।
अक्सर हम यह सोचते रहते हैं कि "मैं यह करूं या न करूं? करने से
क्या लाभ होगा, या न करने से क्या हानि होगी? अगर करूंगा, तो लोग क्या सोचेंगे, और अगर नहीं करूंगा, तो लोग क्या कहेंगे?"
हम
सदैव इस तरह के द्वंद्व में फँसे रहते हैं, जो हमारी ऊर्जा का अपव्यय करता है।
शमः का अभ्यास करते समय यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि मन, विचार, और
क्रियाओं में कोई द्वंद्व या संदेह न हो। शमः का अर्थ है सोच, विचार, और कर्म
में स्थिरता लाना। इसके लिए इंद्रियों, मन, और विचारों की स्थिरता का अभ्यास करना आवश्यक है।
तप, दम, शम का अभ्यास व्यक्ति को आत्मसंयम और मानसिक दृढ़ता प्रदान
करता है।
हाल ही में मैंने पी. गोपीचंद और पी.वी. सिंधू के इंडिया
टुडे कॉन्क्लेव २०१८ का एक पुराना साक्षात्कार सुना। इस साक्षात्कार में दोनों ने
रियो ओलंपिक की तैयारी के बारे में चर्चा की और बताया कि उन्होंने इस महत्वपूर्ण
प्रतियोगिता के लिए तैयारी किस तरह की थी।
इस बातचीत के दौरान उन्होंने एक विशेष अनुभव साझा किया।
रियो ओलंपिक से पहले सिंधू ऑस्ट्रेलियन ओपन में हार गई थीं। इस हार के बाद गोपीचंद
ने सिंधू से कहा, "जो भी
मज़ा करनी है, आनंद लेना है आज ही लेलो । लेकिन अगर आप रियो
ओलंपिक में सफलता पाना चाहती हो, तो भारत लौटने के बाद अपनी
गलतियों की सूची बनाकर मुझसे मिलो।"
सिंधू ने भारत लौटकर गोपीचंद से मुलाकात की और अपनी गलतियों
की सूची प्रस्तुत की। इसे सुनने के बाद, गोपीचंदजी ने कहा, "ठीक है, जो हो चुका, उसे भूल जाओ। अब मैं जैसा कहता हूं,
वैसा अभ्यास और तैयारी करो।" यह कहकर उन्होंने सिंधू को एक कागज दिया, जिस पर उन्होने तीन बिंदू लिखे थे : प्रतियोगिता
तक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर कठिन से कठीन परिश्रम करने होंगे, आहार नियंत्रित
करना होगा, प्रतियोगिता तक
खासकर चीनी युक्त मीठे खाद्य पदार्थ का सेवन वर्ज होगा और प्रतियोगिता खतम होने तक स्मार्टफोन का उपयोग
बंद करना होगा, यानी इंटरनेट, फेसबुक जैसे माध्यमों से दूर रहना होगा।
साक्षात्कार में सिंधू ने साझा किया कि उसने प्रतियोगिता
में मेडल जीतने के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए महीनों तक नियमित रूप से, बिना
छुट्टी लिए और बिना आलस किए, रोज़ दस-दस घंटे कैसे अभ्यास
किया, उसने कैसे कड़ी मेहनत की । साक्षात्कार मे उसने अपेने प्रयासोन्के बारे में
बताया। नियमित रुप से किया गया अभ्यास और परिश्रम ही वास्तव में तप का स्वाध्याय है।
प्रतियोगिता से पहले गोपीचंद जी ने एक कोच के रूप में सिंधू
को आठ महीनों तक स्मार्टफोन से दूर रहने की सलाह दी थी, और उसने इस
सलाह का पूरी तरह पालन किया। उसी साक्षात्कार में जब इंटरव्यूअर ने गोपीचंद जी से
पूछा कि वे तकनीकी युग की इक्कीस वर्षीय
युवती को ऐसी सलाह कैसे दे सकते हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया, "जब आप किसी ऐसी चीज़ को, जो आपकी आदत बन चुकी हो या हमेशा आपके साथ रहती हो, त्याग देते
हैं, तो वह चीज़
बार-बार आपको यह याद दिलाती है कि आपने उसे किस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए
छोड़ा है। यह त्याग आपको आपके उद्देश्य और आपकी सोच का निरंतर स्मरण कराता रहता
है।"
किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए त्याग आवश्यक होता है, अर्थात कुछ चीज़ों को न करने का संकल्प लेना पड़ता है।
लक्ष्य के मार्ग में आने वाली किसी भी बाधा को, चाहे वह कितनी भी आकर्षक या आनंददायक क्यों न हो, दूर रखने का प्रयास ही आत्मनियंत्रण के लिये किया गया दम का स्वाध्याय है।
इस साक्षात्कार में सिंधू ने अभ्यास के दौरान आई कठिनाइयों, चोटों, अभ्यास
मैचों में मिली सफलता-असफलता और इन तनावपूर्ण क्षणों को कैसे संभाला, इसके अनुभव
भी साझा किए। वह भावुक होकर बताती है कि अंतिम प्रतियोगिता में पदक जीतने के
निश्चय पर वह कैसे अडिग और अचल रही। उसके प्रयासों के प्रति समर्पण कितना दृढ़ और
अटल था। उसने परिश्रम के दौरान मिले आनंद के बारे में भी विस्तार से बात की।
इस प्रकार के संतोष और स्थिरता को यदि आज की युवाओं की भाषा
में कहें, तो "COOL" रहने का अभ्यास भी आत्मनियंत्रण
के लिये आवश्यक शम का स्वाध्याय है।
किसी शोधकर्ता, खिलाड़ी, व्यवसायी, उद्यमी, क्रांतिकारी, नेता या संत की जीवनी पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि शोधकर्ता
ने ज्ञान की प्राप्ति के लिए, खिलाड़ी ने कौशल में प्रभुत्व के लिए, व्यवसायी
या उद्यमी ने अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए, क्रांतिकारी या नेता ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, और
संत-महात्मा ने सत्य का साक्षात्कार करने के लिए आवश्यक नियम बनाए और तप, दम, तथा शम इन
तीन तत्वों का स्वाध्याय किया। साथ ही, उन्होंने अपने आचरण के माध्यम से इन गुणों को अभिव्यक्त
किया।
श्री विनोबा भावे ने कहा था कि एक विद्यार्थी को दो चीजों
के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए: पहला विद्या और दूसरा व्रत। इसके लिए
उन्होंने ‘विद्यास्नातक’ और ‘व्रतस्नातक’
जैसे शब्दों का उपयोग किया।
किसी विषय का अध्ययन करने के लिए स्वयं-अध्ययन के कौशल और
तकनीकों को सीखना, ज्ञान की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करना, ज्ञान
प्राप्ति की प्रक्रिया में समय-समय पर अपनी प्रगति का मूल्यांकन करना, और ज्ञान
के नए क्षितिज खोजते रहना ही सही मायनों में विद्यार्थी होना है।
किसी भी कार्य का अध्ययन करने या उसे प्राप्त करने के लिए
संकल्प करना आवश्यक है। जो व्यक्ति संकल्प करता है, वह केवल किसी और के कहने पर कार्य नहीं करता, बल्कि वह
हर कार्य ‘मैंने तय किया है, इसलिए मैं इसे करूंगा’ इस विचार से करता है। अपनी
संकल्पशक्ति को बढ़ाते हुए, दृढ़ता के साथ अपने निश्चय को निभाना और उस कार्य के
प्रति प्रतिबद्ध रहना ही व्रत लेना, अर्थात व्रतार्थी होना है।
ज्ञान प्राप्त करने और अपने भीतर मानवता विकसित करने के लिए
क्या-क्या किया जाना चाहिए? ऐसा कौन कर सकता है? यह प्रश्न हर व्यक्ति के आत्मनिरीक्षण और आत्मविकास की दिशा
में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
युक्ताहार-विहार का
व्रत आचरण करनेवाला व्यक्ति, अर्थात वह व्यक्ति जिसका खान-पान संतुलित हो, जो नियमित
रूप से व्यायाम करता हो, जिसकी नींद और जागने का समय संतुलित हो, और जिसका
मनोरंजन भी ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से उचित हो, वही इस मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।
इंद्रियसंयमन अर्थात इंद्रियों पर संयम रखने वाला व्यक्ति, अर्थात वह
जो अपनी आँखों, कानों, जीभ आदि इंद्रियों को पढ़ाई और अन्य उचित कार्यों में नियोजित
कर सके, अनुचित
कार्यों से दूर रख सके, और क्रोध, लालच जैसे विकारों से विचलित हुए बिना अपने लक्ष्य की ओर
निरंतर अग्रसर हो।
दैनिक उपासना करने
वाला व्यक्ति, अर्थात वह जो नियमित रूप से अपने उद्देश्यों पर चिंतन करता
हो, अंतर्मुख
होकर अपने आचरण का मूल्यांकन करता हो, और अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना
करता हो।
स्वाध्याय और प्रवचन करने
वाला व्यक्ति, अर्थात वह जो निरंतर सीखने की प्रक्रिया में लगा हो, और सिखाने
व सीखने के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर रहा हो; जो एक अच्छा विद्यार्थी बनने के लिए स्वाध्याय करता हो, अपने आचरण
से प्राप्त ज्ञान का उदाहरण प्रस्तुत करता हो, और दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता हो।
सद्गुरुसेवा व्रत का आचरण करने वाला व्यक्ति, अर्थात वह
जो ज्ञान प्रदान करने वाले के प्रति कृतज्ञता और आदर के साथ निरंतर संपर्क बनाए रखता
हो और ज्ञान प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रयास करता हो।
युक्त आहार-विहार, इंद्रिय संयम, दैनिक उपासना, स्वाध्याय-प्रवचन, और सद्गुरु सेवा—इन पाँच नियमों का पालन एक अच्छे
विद्यार्थी के लिए आवश्यक है। मानवता के गुणों के विकास के लिए ज्ञान प्राप्ति के
मार्ग में इनका अनुसरण करना चाहिए।
इन पाँच व्रतों का पालन करते हुए निरंतर अभ्यास अर्थात सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में भाग लेना
आवश्यक है। ऋत, सत्य, तप, दम, और शम—ये स्वाध्याय और प्रवचन के तत्व हैं, जबकि युक्त
आहार-विहार, इंद्रिय संयम, दैनिक उपासना, स्वाध्याय-प्रवचन, और सद्गुरु सेवा—ये इसके लिए व्रत, अर्थात
आचरण के नियम हैं। इनका अभ्यास करके व्यक्ति एक आदर्श विद्यार्थी और व्रतार्थी, अर्थात विद्याव्रती, बन सकता है।
प्रशांत
दिवेकर
ज्ञान प्रबोधिनी, पुणे
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