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स्वाध्यायप्रवचन ७ : अध्ययन और संप्रेषण की परंपरा : १

प्रजा से प्रजाति तक: अध्ययन और संप्रेषण की परंपरा :

छात्र प्रबोधन मासिक की तपपूर्ति के अवसर पर, वर्ष २००५  में 'ईशान्य भारत मैत्री अभियान' का आयोजन किया गया, जिसके तहत मिजोरम राज्य की यात्रा का अवसर मिला। इस यात्रा के दौरान, एक गाँव में हमेंने पाया की वंहा  एक घर जिसे 'झोलबुक' (Zawlbuk) कहा जाता है, उसे संग्रहालय तरह संजोया हुआ है । एक समय मे ये विशेष घर गाँव की रचना का अभिन्न हिस्सा हुआ करता था ।

'झोलबुक' गाँव के युवाओं के लिए एक प्रकार की आवासीय व्यवस्था थी। आधुनिक शिक्षा के प्रसार से पूर्व, विशेष रूप से ब्रिटिश शासन से पहले, मिजो समाज में शिक्षा की एक व्यवस्थित पद्धति थी। इस समाज का विश्वास था कि शिक्षा मनुष्य को बदल सकती है, और वे शिक्षित होने को जीवन का एक महत्वपूर्ण मूल्य मानते थे। ब्रिटिश काल से पहले, 'झोलबुक' मिजो समाज में मानव निर्माण और चरित्र गठन की एक सशक्त प्रणाली थी।

पंद्रह वर्ष से अधिक आयु के सभी मिजो युवकों के लिए इस आवास में रहना अनिवार्य था। यहाँ उन्हें आत्मरक्षा, शिकार और ग्राम शासन का कठोर और अनुशासित प्रशिक्षण दिया जाता था। इस दौरान, उन्हें जीवन के मूलभूत मूल्य भी सिखाए जाते थे। 'झोलबुक' में केवल जनजातीय वीरता और इतिहास की शिक्षा ही नहीं दी जाती थी, बल्कि जनजातीय नियम, आचार संहिता, सामाजिक संकेत और न्याय प्रणाली का भी गहन प्रशिक्षण दिया जाता था।

संक्षेप में, 'झोलबुक' में प्रशिक्षित होने के बाद मिजो युवक एक योग्य जनजातीय नागरिक के रूप में समाज में प्रवेश करते थे और अपने सामाजिक दायित्व को निभाते थे। युवकों और युवतियों के लिए अलग-अलग झोलबुक हुआ करते थे।

मिझोरम की तरह पूर्वोत्तर भारत के नागालैंड में इस प्रकार के सामाजिक शिक्षा प्रशिक्षण केंद्रों को 'मोरुंग' (Morung) कहा जाता है। नागालैंड मे स्थित आओ जनजाति में लड़कों के आवास स्थल को 'अरिचू' और लड़कियों के आवास स्थल को 'त्सुकी' कहा जाता है।

नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, छत्तीसगढ़ और अन्य कई राज्यों में ऐसी शिक्षा व्यवस्थाएँ विकसित हुई थीं, जहाँ समाज के लिए उपयुक्त मानव संसाधन तैयार करने हेतु एक संगठित शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ था।

'झोलबुक' (Zawlbuk) को देखने और उसके कार्य को समझने के बाद मेरे मन में कई प्रश्न उत्पन्न हुए—

मानव ने ऐसी मानव संसाधन निर्माण प्रणालियाँ क्यों विकसित की होंगी?

कौन-सी बातें, जानकारी या ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को

हस्तांतरित करना आवश्यक और उपयोगी है?

इस बात का बोध मानव को कब हुआ होगा?

समूह में रहते हुए, एक-दूसरे की बुद्धि का सहारा लेते हुए,

मानव ने सामूहिक बुद्धि का उपयोग कब करना प्रारंभ किया होगा?

संक्षेप में, मानव ने ज्ञान की खेती कब और कैसे शुरू की होगी?

ज्ञान की खेती आवश्यक है, यह उसे कब समझ मे आया होगा?

और ज्ञान की खेती के तरीके; पद्धति मानव ने कैसे विकसित किए होंगे?

कई प्राणी समूह में रहते हैं, जैसे चींटियाँ और मधुमक्खियाँ, जो अपने प्राकृतिक जीवनक्रम का पालन करती हैं। हजारों वर्ष बीत जाने के बावजूद, ये प्राणी प्राकृतिक नियमों के अंतर्गत ही अपना जीवन जी रहे हैं। उनके बीच कार्य विभाजन भी प्रकृति के नियमों के अनुसार होता है। जब वे अपनी पीढ़ी से अगली पीढ़ी को कुछ सिखाते हैं, तो केवल जैविक ज्ञान का हस्तांतरण होता है; उनके समुदाय में ज्ञान की कोई वृद्धि नहीं होती।

लेकिन मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो

ज्ञान का निर्माण, संकलन, संग्रहण, संरक्षण, पोषण करता है

और अगली पीढ़ी को उसका हस्तांतरण करता है।

जो मानव समूह विशिष्ट विचारों और आचारों से बंधा होता है, उसे परिवार, कुल, वंश, समाज और राष्ट्र जैसे विभिन्न नामों से संबोधित किया जा सकता है।

जब ज्ञान और आचरण की पद्धतियाँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती हैं

और इससे मानव समाज के  आचरण की एक विशिष्ट रीति विकसित होती है,

तो उसे 'संस्कृति' कहा जा सकता है।

जीवनप्रणाली (Way of Life),

विचारप्रणाली (Way of Thinking),

और भक्तिप्रणाली (Way of Worship)—

इन तीन तत्वों के समन्वय से संस्कृति द्वारा निर्धारित आचरण की रीति बनती है।

अगली पीढ़ी को इस ज्ञान परंपरा की संस्कृति और विरासत को स्वीकार करने के लिए तैयार करने की प्रक्रिया को 'शिक्षा' या 'संस्कार' कहा जा सकता है।

इसलिए, मनुष्य के व्यक्तित्व विकास के संदर्भ में वृद्धि के साथ विकास की संकल्पना प्रस्तुत की जाती है। ज्ञान और संस्कार, परंपराओं को संरक्षित रखते हुए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किये जाते है । यह अभ्यास अच्छाई को स्वीकारते हुए और अज्ञान का नाश करते हुए एक  नयी सक्षम पीढ़ी बनाने का कार्य करता है।

अंग्रेज़ी में एक प्रसिद्ध कहावत है – 'Standing on the shoulders of giants' – जिसका अर्थ है कि हम आज जो ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, वह पूर्ववर्ती पीढ़ियों की ज्ञान परंपरा पर आधारित है। जो भी व्यक्ति आज ज्ञान के क्षितिज की खोज करना चाहता है, उसे अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ तथा ऋणी होना चाहिए। हम अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित ज्ञान परंपरा के वाहक हैं, और यह भाव हमारे मन में कृतज्ञता रूप में विद्यमान रहना चाहिए।

इस पितृऋण की पूर्ति केवल तभी संभव है, जब हम अपने पूर्वजों की ज्ञान-संस्कार की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए समाज के लिए एक नई संस्कारशील पीढ़ी का निर्माण करें। इसी उद्देश्य से शिक्षावल्ली में तीन प्रकार के स्वाध्याय मंत्रों को सूत्रबद्ध रूप में उल्लेख किया गया है।

प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च।

प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च।

प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च।

मनुष्य तीन प्रकार की विरासत के साथ विकसित होता है। पहली विरासत उसे जन्म के समय प्राप्त होती है – जैविक विरासत भारतीय परंपरा में जैविक विरासत के संप्रेषण के लिए गृहस्थाश्रम को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। इसे सामाजिक जीवन की आधारशिला कहा गया है। संतानोत्पत्ति और पालन-पोषण को गृहस्थाश्रम मे एक महत्वपूर्ण एक महत्वपूर्ण दायित्व के रूप में स्वीकार किया गया है।

जैविक विरासत के उपरांत, जिस परिवार, ज्ञाती और समाज में व्यक्ति का लालन-पालन होता है, वहाँ से उसे सामाजिक विरासत प्राप्त होती है। ज्ञाती समूह एक सामाजिक समुदाय होता है जिसमें लोगों को एक समान व्यवसाय, आजीविका का पारंपरिक ज्ञान होता है। इन समूहों में व्यावसायिक ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता है, जिससे उनके कौशल और तकनीकों का संरक्षण होता है। ज्ञाती समूहों में व्यावसायिक ज्ञान, तकनीकी विकास, और इनकी पारंपरिक संरचना का महत्वपूर्ण स्थान होता है। यह ज्ञान न केवल समाज के आर्थिक ढांचे को मजबूती देता है, बल्कि सांस्कृतिक और तकनीकी रूप से भी समृद्ध करता है। परिवार और समुदायों के वरिष्ठ सदस्य अपने अनुभव और कौशल को युवा पीढ़ी को सिखाते हैं। ज्ञाती समूहों में ज्ञान का हस्तांतरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता है। ज्ञाती समूहों में व्यावसायिक ज्ञान का हस्तांतरण, तकनीकी निर्माण, पारंपरिक संवर्धन और व्यापारिक विस्तार के महत्वपूर्ण पहलू होते हैं। ज्ञाती समूह जाति समूह से अलग है   जाती परंपरागत रूप से जन्म आधारित होती थी  या है, जबकि ज्ञाती समूह विशेष रूप से व्यवसाय और आजीविका से संबंधित होते हैं।

जैविक विरासत के बाद, जिस भौगोलिक परिवेश और समाज में उसका पोषण होता है, वहां से एक सामाजिक विरासत समय के साथ संप्रेषित होती है। उसके व्यक्तित्व के निर्माण में सामाजिक विरासत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज के मूल्य, परंपराएँ, और प्रथाएँ भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संप्रेषित होती हैं।

भारत की माटी में जन्मे और बडे होने वाले अधिकांश व्यक्तियो को रामायण और महाभारत संबंधित कथाएँ कथाओंकी जानकारी होती है, भलेही उसने ये कथाएँ न पढी हो ये कथाएँ बल्कि भारतीय जीवन का सार और  सांस्कृतिक परंपराओं का आधार हैं। आज भी भारतीय समाज श्रीराम के जीवन मूल्यों को आदर्श मानकर जीनेका प्रयास करता है और राम कथा के जीवन मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाना अपना दायित्व मानता है । यह का कार्य कई शताब्दीयों से निरंतर चल रहा है।

तीसरी विरासत ज्ञान की विरासत है। जब हम मंदिरों की रचना और शिल्पकला का अध्ययन करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि अनेक संरचनाएँ एक जैसी समान चित्रशैली में निर्मित हैं। इसका कारण यह है कि उस विशिष्ट कला-शैली का ज्ञान उस शिल्पी समुदाय में निरंतर पोषित और संप्रेषित होता रहा है। भारत में ऐसे अनेक ज्ञातीकुल (गुरुकुल-परंपरा से जुडा घराना ) हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने कला-कौशल और ज्ञान को संजोते और सवारते हैं। ज्ञाती समूह कि सामाजिक विरासत व्यक्तित्व निर्माण में एक अहम भूमिका निभाती है। समाज के मूल्य, परंपराएँ, और प्रथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी संप्रेषित होते रहते हैं।

भारतीय परंपरा में ऐसी चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है। समय के साथ इन कलाओं की सूची में नई कलाओ का समायोजन करके इस सूची मे नये कलाओ की बढोतरी होती रही है । इस कलासुची के विस्तार का जिक्र प्रबंधकोश, ललितविस्तर और कलाविकास  जैसे ग्रंथों में मिलता है। आज के युग में इस सूची में कुछ नई कलाएँ जैसे विज्ञापन कला भी जोड़ी जा सकती हैं, जो समकालीन जीवन की आवश्यकताओं और अभिव्यक्तियों को प्रतिबिंबित करती हैं।

इसी प्रकार भारतीय ज्ञान परंपरा में चौदह विद्याओं का भी उल्लेख मिलता है, जिनसे तत्वज्ञान की गहन शाखाएँ विकसित हुई हैं। आधुनिक संदर्भ में इन विद्याओं में भी नई ज्ञान शाखाएँ जोड़ी जा सकती हैं।

इस प्रकार, कला और विद्या की इस ज्ञानविरासत का संरक्षण और संप्रेषण गुरुकुल जैसी सामाजिक संस्थाओं और संरचनाओं की जिम्मेदारी रही है।

इन तीनों विरासतों – जैविक, सामाजिक और ज्ञान परंपराके सतत संप्रेषण और उनके उचित आचरण के लिए ही भारतीय जीवन में ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम जैसे आश्रमों की सुनियोजित  योजना बनाई गई है।

"भारतीय परंपरा में ज्ञान का संप्रेषण तीन प्रमुख व्यक्तियों के माध्यम से होता है, जिन्हें देवतुल्य माना गया है। इसी कारण उनसे देवताओं के समान व्यवहार करने की प्रेरणा दी गई है—

मातृदेवो भव’,

पितृदेवो भव’,

आचार्यदेवो भव’।

शिक्षावल्ली के अंतिम तीन स्वाध्याय प्रवचनों का सार तभी पूर्ण रूप से प्रकट होता है, जब माता, पिता और आचार्य की भूमिकाएँ विद्यार्थियों के साथ सक्रिय, जीवंत और भावनात्मक संवाद में बनी रहें। ऐसा संवाद केवल ज्ञान के आदान-प्रदान तक सीमित नही होता, बल्कि वह गहरे अनुभव और संवेदना से जुड़कर ज्ञान परंपरा को वास्तव में जागृत कर देता है।

असम के माजुली द्वीप पर आज भी शिक्षा की सत्रीय पद्धतिअर्थात गुरुकुल परंपराजीवंत रूप में विद्यमान है। यहाँ वैष्णव धर्मतत्त्वों के साथ-साथ समाज में चेतना के संचार हेतु जिन माध्यमों को अपनाया गया है, वे हैं—नृत्य, गायन, वादन तथा भावना अर्थात नाट्यकला

सत्रों के आचार्यों से संवाद के दौरान उन्होंने एक गहरा भाव व्यक्त करते हुए कहा, "हम दो पिताओं का नाम लगाते  हैं—एक वे जिन्होंने हमें जन्म दिया, और दूसरे वे आचार्य, जिनके घर में रहकर हमने शिक्षा और संस्कार पाए। आचार्य सहवास के द्वारा  ज्ञान और संस्कारों से हमे नया जन्म मिला

यह कथन आचार्यो के प्रती उनकी श्रद्धामात्र का नाही, अपितु उस परंपरा का द्योतक है, जिसमें आचार्,  माता और पिता की भूमिका को आत्मसात कर, अगली पीढ़ी के मानस का संवर्द्धन करते हैं। इस प्रकार, शिक्षा का यह गुरुकुल रूप केवल ज्ञान का संप्रेषण नही, अपितु संस्कृति, संवेदना और चेतना की विरासत का सजीव प्रवाह है। यह कथन दर्शाता है कि गुरुकुल के आचार्य केवल शिक्षक नही, बल्कि माता और पिता की भूमिका निभाते हुए नई पीढ़ी का पालन-पोषण करते हैं, और उन्हीं के माध्यम से ज्ञान की यह महान विरासत भावपूर्ण रूप में आगे बढ़ती है।

जैविक विरासत के साथ-साथ ज्ञान की परंपरा और सामाजिक चेतना को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने वाले अनेक परिवार भारतीय समाज में उदाहरणस्वरूप देखे जा सकते हैं—जैसे आमटे परिवार, कर्वे परिवार, जिन्होंने न केवल सेवा और विचारशीलता को जीवित रखा, बल्कि उसे उत्तराधिकार की तरह आगे भी बढ़ाया। इसी प्रकार, सत्यनिष्ठा और सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी निभाने वाले अनेक घराने भी इस परंपरा के वाहक हैं।

ऐसी समन्वित विरासत का एक आदर्श उदाहरण भारतीय परंपरा में प्रभु श्रीरामचंद्र का इक्ष्वाकु वंश है। इस वंश में इक्ष्वाकु, मान्धाता, हरिश्चंद्र, भगीरथ और रघु जैसे राजा हुए, जिन्होंने अपने पराक्रम, धर्मनिष्ठा और चारित्रिक उज्ज्वलता से इतिहास में अमिट स्थान बनाया। इनकी पीढ़ियों ने श्रुति परंपरा के स्वाध्याय और प्रवचन के माध्यम से जीवनमूल्यों का प्रसार किया। इसी परंपरा का सजीव प्रतिबिंब उस प्रसिद्ध उक्ति में देखने को मिलता है—

‘रघुकुल रीति सदा चली आयी,

प्राण जाए पर बचन न जाई।’

यह उक्ति केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि भारतीय जनमानस के आदर्श और जीवनपथ की उद्घोषणा है।

मानव समाज में केवल जैविक विरासत ही नहीं, अपितु कौशल और कलात्मक परंपराओं की विरासत को भी अनेक गाँव, ज्ञाती समूह और घराने जैसे संगीत-कला से समृद्ध घराने पीढ़ी दर पीढ़ी संजोते आए हैं। ये परिवार न केवल अपने ज्ञान और कौशल को जीवित रखते हैं, बल्कि 'स्वाध्याय प्रवचन' के तीनों सूत्रों का सार्थक रूप से पालन करते दिखाई देते हैं।

समय के साथ नई कल्पनाओं को आत्मसात करते हुए, और युगानुकूल परिवर्तन करते हुए, ये घराने

अपनी कला और परंपरा की शाखा-उपशाखाओं के रूप में विस्तार पाते हैं—

(प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च)

इन ज्ञान-कलाओं के प्रशिक्षण और अनुभव-शिक्षा की विशिष्ट पद्धतियाँ निर्धारित होती हैं—

(प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च)

और इन्हीं पद्धतियों से वह गुणवत्ता और वृत्ति से परिपक्व शिष्य तैयार होता है,

जो गुरु-शिष्य परंपरा की श्रृंखला को आगे बढ़ाता है—

(प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च)

ज्ञान और कौशल की यह विरासत केवल एक परंपरा नहीं, अपितु एक सांस्कृतिक प्रवाह है, जो समाज को स्थायित्व और सृजनात्मकता प्रदान करता है।

ज्ञान की परंपरा में यह अद्भुत विनय भाव देखने को मिलता है कि राजा जनक स्वयं को याज्ञवल्क्य का शिष्य मानते हैं, और शुकदेव स्वयं को जनक का शिष्य कहते हैं। पश्चिमी परंपरा में भी यही गुरु-शिष्य संबंध प्रतिष्ठित है—प्लेटो स्वयं को सोक्रेटीस का शिष्य कहते हैं, और अरस्तु स्वयं को प्लेटो का।

ऐसी ज्ञानधारा को बनाए रखने वाले अध्ययन-कुलों की परंपरा को आगे बढ़ाना, और समयानुकूल नए कुलों का निर्माण करना ही 'प्रजा', 'प्रजनन' और 'प्रजति'  इन तीन व्रतों का स्वाध्याय प्रवचन करना है।

पूर्वजों द्वारा अर्जित सिद्धांत, किए गए प्रयोग, और उनसे प्राप्त ज्ञान—इन सबके प्रति शिष्य के अंतःकरण में श्रद्धा, जिज्ञासा और उत्तरदायित्व की भावना यदि जाग्रत हो जाये तभी ये श्रुतिमंत्र भावी पीढ़ियों में स्वतः संप्रेषित हो जाएंगे।

इन स्वाध्याय प्रवचनों में केवल शिक्षा ही नहीं, संस्कार का भी गहन समावेश होता है।

शिक्षा शिष्य को निर्देश देती है—'तू ऐसा बन, वैसा कर',

जबकि संस्कार वह होता है जिसे शिष्य स्वयं भीतर से अपनाता है, आत्मसात करता है।

भारतीय परंपरा में इस आंतरिक जागृति के लिए कथा, कहानी और पुराणों को माध्यम बनाया गया है।

सीखने वाले के मन में ये कथाएँ सहज रूप से प्रवेश करती हैं,

उसके भावकोष को स्पर्श करती हैं और फिर उसके आचरण को दिशा देती हैं।

भारत की ये कथा परंपरा उपदेश नहीं है,

बल्कि अनुभव की धारा है जो जीवन को आकार देती है।

जैविक विरासत के संप्रेषण हेतु कुलधर्म की अवधारणा स्थापित की गई है, वहीं ज्ञान-कौशल की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए समाज में ज्ञातिधर्म प्रचलित हैं। कुलधर्म और ज्ञातिधर्म यह दोनों ही परंपरा की निरंतरता और संस्कृति की जीवंतता के आधार स्तंभ हैं।

मनुष्य के जीवन में विकास की जो प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, उसके लिए ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च’ से लेकर प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च’ तक — तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षावल्ली के नवम अनुवाक में वर्णित बारह चिरंतन श्रुति मंत्रों का अनुसरण एक अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करता है। इस लेखमाला में इन्हीं बारह मंत्रों के अर्थ को खोजने और उनका आचरण में अर्थ-संप्रेषण करने का प्रयास किया गया है।

इन अर्थों की अभिव्यक्ति केवल बौद्धिक विश्लेषण से नहीं, बल्कि तपश्चर्या से संभव है — और इस तपश्चर्या का स्वरूप है: स्वाध्याय (अर्थात स्वयं सीखना) और प्रवचन (अर्थात सिखाना)। यही वह जीवनमंत्र है जो व्यक्ति को सतत आत्मविकास की राह पर अग्रेसर करता है।

जीवन मे इन बारह मंत्रों में 'ऋतं', 'सत्यं', 'तप', 'दम', और 'शम' जैसे श्रुति मंत्रों  के  स्वाध्याय-प्रवचन का  आरंभ कुमार अवस्था में, ब्रह्मचर्य आश्रम में होता है। और जैसे-जैसे जीवन युवा आयु में प्रवेश करते हुए गृहस्थाश्रम के विभिन्न चरणों वो 'अग्नि', 'अग्निहोत्र', 'अतिथि', 'प्रजा', 'प्रजनन' और 'प्रजति' जैसे श्रुति मंत्रों के स्वाध्याय-प्रवचन का  आरंभ  करता है

यदि इन श्रुति मंत्रों  के आधारपर आचरण आजीवन चलता रहता है,

वक्ती की जीवन यात्रा श्रुति मंत्रों  के मार्गदर्शन में संचालित होती है,

तो हम जीवन भर 'स्वाध्याय-प्रवचन' के पथ के साधक बन सकते हैं

— एक ऐसे पथ के यात्री,

जो केवल ज्ञान का संचय नहीं, अपितु संस्कार का संचार भी करते है।

प्रशांत दिवेकर

ज्ञान प्रबोधिनी, पुणे

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