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कर्मयोगश्लोकसंग्रहः

 कर्मयोगश्लोकसंग्रहः


अथ श्रीमद् भगवद् गीतासु कर्मयोगः

श्रीभगवानुवाच


कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण: |

जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥२—५१॥

ज्ञानी समत्व-बुद्धीनें कर्माचें फळ सोडूनी

जन्माचे तोडिती बंध पावती पद अच्युत ॥२—५१॥

 

विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह: |

निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति ॥२-७१॥

सोडूनि कामना सर्व फिरे होऊनि निःस्पृह

अहंता ममता गेली झाला तो शांति-रूप चि ॥२-७१॥

 

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते |

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥३-४ ॥

न कर्मारंभ टाळूनि लाभे नैष्कर्म तें कधीं

संन्यासाच्या  क्रियेनें चि कोणी सिद्धि न मेळवी ॥३-४ ॥

 

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |

कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ॥३-५॥

कर्माविण कधीं कोणी न राहे क्षण-मात्र हि

प्रकृतीच्या गुणीं सारे बांधिले करितात चि ॥३-५॥

 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते ॥३-६॥

इंद्रियें करिता कर्म मूढ त्यांस चि रोधुनी

राहतो भोग चिंतूनि तो मिथ्याचार बोलिला ॥३-६॥

 

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥१८-१४ ॥

अधिष्ठान अहंकार तशीं विविध साधने

वेगळाल्या क्रिया नाना दैव तें  येथ पाचवें ॥१८-१४ ॥

 

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषत: कृतम् |

अफलप्रेप्सुना कर्म यतत्सात्विकमुच्यते ॥१८-२३॥

नेमिलें जें न गुंतूनि राग-द्वेष न राखतां

केलें निष्काम-वृतीनें कर्म तें होय सात्विक ॥१८-२३॥

 

यत्तुžकामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुन: |

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥१८-२४॥

धरूनि कामना चित्तीं जें अहंकार-पूर्वक

केलें महा खटाटोपें कर्म तें होय राजस ॥१८-२४॥

 

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् |

मोहादारभ्यते कर्म यतत्तामसमुच्यते ॥१८-२५॥

विनाश वेंच निष्पत्ति सामर्थ्य हि न पाहतां

आरंभिलें चि जें मोहें कर्म तें होय तामस ॥१८-२५॥

 

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ॥६-५॥

उद्धरावा स्वयें आत्मा खचूं देऊं नये कधीं

आत्मा चि आपला बंधु आत्मा चि रिपु आपुला ॥६-५॥

 

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित: |

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार: कर्ता सात्विक उच्यते ॥१८-२६॥

निःसंग निरहंकार उत्साही धैर्य-मंडित

फळो जळो चळे ना तो कर्ता सात्विक बोलिला ॥१८-२६॥

 

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव: |

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥३-१४॥

अन्नापासूनि हीं भूतें पर्जन्यांतूनि अन्न तें

यज्ञें पर्जन्य तो होय यज्ञ कर्मामुळें घडे ॥३-१४॥

 

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३-१५॥

प्रकृतीपासुनी क्रम ब्रह्मीं प्रकृति राहिली

ऐसें व्यापक ते ब्रह्म यज्ञांत भरलें सदा ॥३-१५॥

 

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |

कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते ॥३-७ ॥

जो इंद्रियें मनानें तीं नेमुनी त्यांस राबवी

कर्म-योगांत निःसंग तो विशेष चि मानिला ॥३-७ ॥

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||२-४७  ||

कर्मांत चि तुझा भाग तो फळांस नसो कधीं

नको कर्म-फळीं हेतु अकर्मी वासना नको  ||२-४७  ||

 

योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |

सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥२-४८॥

फळ लाभो न लाभो तूं  निःसंग सं होउनी

योग-युक्त करीं कर्में योग-सार समत्व चि ॥२-४८॥

 

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् ॥२-५०॥

येथें समत्व-बुद्धीनें टळे सुकृत-दुष्कृत

समत्व जोड ह्यासाठीं तें चि कर्मांत कौशल ॥२-५०॥

 

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: ॥१८-४६॥

जो प्रेरी भूत-मात्रास ज्याचा विस्तार विश्व हें

स्व-कर्म-कुसुमीं त्यास पूजितां मोक्ष लाभतो ॥१८-४६॥

 

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर |

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: ॥३-१९॥

म्हणूनि नित्य निःसंग करीं कर्तव्य कर्म तूं

निःसंग करितां कर्म कैवल्य-पद पावतो ॥३-१९॥

 

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: |

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३-२०॥

कर्म-द्वारा चि सिद्धीस पावले जनकादिक

करीं तूं कर्म लक्षूनि लोक-संग्रह-धर्म हि ॥३-२०॥

 

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: |

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३-२१॥

जें जें आचरितो श्रेष्ठ तें तें चि दुसरे जन

तो मान्य करितो जें जें लोक चालवितात तें ॥३-२१॥

 

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥३-२५॥

गुंतूनि करिती ज्ञात्यानें मोकळेपणें

करावें कर्म तैसें चि इच्छुनी लोक-संग्रह ॥३-२५॥

 

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा |

निराशीर्निनर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥३-३०॥

मज अध्यात्म-वृत्तीनें सर्व कर्में समर्पुनी

फलाशा ममता सर्व सोडुनी झुंज तूं  सुखें ॥३-३०॥

 

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: |

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ॥४-१८॥

कर्मीं अकर्म जो पाहे अकर्मीं जो तसे

तो बुद्धिमंत लोकांत तो योगी कृत-कृत्य तो  ॥४-१८॥

 

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: |

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स: ॥४-२०॥

नित्य-तृप्त निराधार न राखे फल-वासना

गेला गढूनि कर्मांत तरी कांही करी चि ना ॥४-२०॥

 

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: |

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥४-२१॥

संयमी सोडुनी सर्व इच्छेसह परिग्रह

शरीरें चि करी कर्म दोष त्यास न लागतो ॥४-२१॥


गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: |

यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥४-२३॥

ज्ञानांत बैसली वृत्ति संग सोडूनि मोकळा

यज्ञार्थ करितो कर्म जाय सर्व जिरूनि ते ॥४-२३॥

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां

योगशास्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे  कर्मयोगश्लोकसंग्रहः ।

हरिः ॐ तत्सत् ।

संदर्भ : पदावली, विवेकानंद केंद्र, कन्याकुमारी,

                                                      गीता-गीताई; संकलन, ज्ञान प्रबोधिनी   

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