अग्निहोत्र : स्वाध्यायी का जीवन-पथ
अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च।
अरुणाचल प्रदेश के तेजू, लोहित जिले का निवासी ताकेलूम वकालत की
पढ़ाई की लिए पुणे आया था। वह ज्ञान
प्रबोधिनी के ईशान्यभारत से संबंधित विभिन्न अभियानों में पूरे उत्साह से भाग
लेता था। व्याख्यानों, ट्रैकिंग और
यात्राओं में उसकी भागीदारी हमेशा उल्लेखनीय रहती थी।
एक दिन उसने अखबार में सिंहगढ़ पर चढ़ाई के लिये होनेवली एक
प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा। स्पर्धा एक प्रतियोगी किलेपर लगातार कितने बार उपरनीचे
कर सकते है इसके लिये आयोजित थी । नई प्रतियोगिता को देखने की उत्सुकता में वह सुबह-सुबह सिंहगढ़ की
ताली मे पहुंचा । वहां मौजूद लोगों से
प्रेरित होकर, उसने भी प्रतियोगिओन्को
प्रोत्साहन देने के लिये उनके के साथ उसने
सिंहगढ़ पर चढ़ने और उतरने की शुरुआत की।
हैरानी की बात यह थी कि जिन प्रतियोगियों ने पहले से अभ्यास
किया था, वे थककर प्रतियोगिता से बाहर हो गए। लेकिन
ताकेलूम का जोश और ऊर्जा बरकरार रही। वह लगातार ऊपर-नीचे आता-जाता रहा और अंततः
उसने प्रतियोगिता जीत ली। इस प्रयास के लिये उसका नाम लिम्का बुक रिकार्ड मे दर्ज
भी हुआ।
कुछ साल पहले, मै इसी
ताकेलूम के तेजू जिले के पास स्थित दिबांग जिले के रोइंग गाँव के पास स्थित रिवॉच
संस्था के संग्रहालय गया था। वहाँ, संग्रहालय के एक कक्ष
में एवरेस्ट फतह करने वाली एक स्थानीय लड़की टिने मेना के एवरेस्ट अभियान से जुड़ी
सामग्री प्रदर्शित कि हुई थी। टिने मेना, अरुणाचल
प्रदेश की पहली महिला हैं जिन्होंने एवरेस्ट पर चढ़ाई की। अभियान से कुछ दिन पहले उनकी
माँ का निधन हो गया था। इसके बावजूद उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प के बल पर निजी
दुःख को किनारे रखते हुए एवरेस्ट चढ़ने का साहसिक निर्णय लिया और सफलता प्राप्त
की।
एक ही भौगोलिक क्षेत्र के दो व्यक्ति—दोनों की शारीरिक
क्षमता उत्तम, दोनो का भौगोलिक और सामाजिक परिसर लगभग एक जैसा । लेकिन एक व्यक्ति
रिकॉर्ड बनाकर भी रुक जाता है, आगे कुछ नही करता, जबकि एक लड़की बॉर्डर रोड संगठन में काम करते हुये कठिन
सड़कों की मरम्मत करते हुए एवरेस्ट फतह कर लेती है।
ऐसा क्यों होता है?
जन्म से मिली क्षमता, परिवेश,पसंद-नापसंद ,लगन, कौशल में उत्कृष्टता और मानसिक संकल्प जैसी चीजें दो
व्यक्तियों को अलग करती हैं। लेकिन सवाल यह है कि रिकॉर्ड बनाने के बाद भी एक
व्यक्ति के मन में नया रिकॉर्ड बनाने की इच्छा क्यों नहीं जागती?
कुछ करने की
ललक के बिना व्यक्ति
कुछ हासिल
करने की दिशा में नतो सोचता है ना ही उस दिशामे आगे कदम उठाता हैं।
जब तक भीतर से
कुछ करने की उर्मी या प्रबल इच्छा उत्पन्न नहीं होती,
तब तक वह कुछ
हासिल की दिशा में भी आगे नहीं बढ़ता।
वह न ही किसी
पराक्रम की यात्रा शुरू करता है
और न ही न तो
परिवर्तन की दिशा मे अग्रेसर होता है।
जिन्हें यह
उर्मी भीतर से निरंतर प्रेरित करती रहती है,
वे बाहरी रूप
से संघर्षशील लगते हैं। वे सक्रिय, प्रयासरत और
जुनूनी प्रतीत होते हैं।
कुछ करने की
तीव्र इच्छा केवल एक ध्येय नहीं होता है,
बल्कि यह
लक्ष्य प्राप्ति के लिए समर्पित एक संकल्प होता है।
लक्ष्य
प्राप्त करने की ध्येयासक्ति होती है।
यही तो जज़्बा है जो सीमा पर तैनात जवान को पराक्रम के लिये
प्रेरित करता है, तो वही जज़्बा फुटपाथ पर सामान बेचनेवाले के मन में उद्योगपति
बनने का सपना जगता है ।
जैसे अग्नि लकड़ी में गुप्त रहती है, वैसे ही व्यक्ति के भीतर भी
अनेक गुण और क्षमताएँ सुप्त रहती हैं। जैसे घर्षण किए बिना अग्नि प्रकट
नहीं होती, वैसे ही परिस्थितियों की चुनौतियो को स्वीकार किए बिना व्यक्ति की सुप्त ऊर्जा जागृत नहीं
होती।
मानवी जीवन और सभ्यता में ऊर्जा और
जीवन शक्ति
का प्रतीक है अग्नि!
ज्योति वह शक्ति है जो प्रकाश और ऊष्मा प्रदान करती है।
अपने में
स्थित मूल ज्योति रूपी तेज का प्रकटीकरण करने के लिए
किया गया
स्वाध्याय ही वास्तविक साधना है— "अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च।"
अग्नि के नियंत्रण में आने से मानव संस्कृति के विकास की
दिशा ही बदल गई। अग्नि तत्व के माध्यम से ऋतुओं का अध्ययन करने पर मानव ने अपने
वार्षिक क्रियाकलाप सूर्य तथा ऋतु नुसार निश्चित किये, ऊर्जा उत्पन्न करने और उसे
संचित करने के उपकरण विकसित किए, जिससे
जीवन अधिक सहज और समृद्ध हो गया।
लेकिन जब मानव ने अग्नि तत्व के सत्य की गहराई से खोज
की,
तो उसे यह समझ में आया—
अग्नि तेजस्वी
है!
शीत का नाश करने वाली अर्थात
ऊष्मा प्रदान करने वाली है!
अग्नी सृजन
है, संहार है, चेतना अर्थात जीवन है!
अग्नि निर्मल
है!
अग्नि माने
ऊर्जा!
अग्नि याने तेज।
अग्नि याने पराक्रम।
अग्नि याने ओज।
अग्नि अर्थात
चैतन्य है।
ऐसे
अग्नि तत्व को लेकर भारतीय समाज ने जो प्रार्थना की, वह एक दर्शन को प्रकट करती है:
"यत्ते अग्ने तेजस्तेनाहं तेजस्वी भूयासम्।
यत्ते अग्ने वर्चस्तेनाहं वर्चस्वी भूयासम्।
यत्ते अग्ने हरस्तेनाहं हरस्वी भूयासम्॥"
हे अग्नि!
तेरे तेज से मुझे तेजस्वी बना।
तेरे विजय के प्रकाश से मुझे वर्चस्वी बना।
तेरी उस ऊर्जा से, जो हर अपवित्रता को भस्म कर देती है,
मुझे भी अशुद्धि का नाश करने वाला बना।
जो लोग इस प्रार्थना को अपनाकर "अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च" का व्रत धारण करते हैं,
उनकी यात्रा अंधकार से
प्रकाश की ओर होती है।
ईर्ष्या, दरिद्रता, लाचारी और
संकुचितता को त्यागकर,
उनके व्यक्तित्व में प्रकाश, ओज, शांति, सौम्यता और विनम्रता प्रकट हुई।
जिन्होंने ओज का
स्वाध्याय किया,
वे छत्रपति बने, स्वातंत्रवीर बने, शहीद बने, योद्धा-संन्यासी बने।
जिन्होंने शीतल ज्योति के
स्वरूप का स्वाध्याय किया,
वे माऊली बने, सेवाव्रती बने, कर्मयोगी और महात्मा बने।
‘अग्नयश्च’ का स्वाध्याय करने के लिए कार्यप्रवण होना अनिवार्य है। ज्ञानेंद्रियों और
कर्मेंद्रियों के मूल में जो ऊर्जा है, वही प्राणशक्ति है। प्राणशक्ति के पोषण के लिए प्राणायाम और योगासन का
नियमित अभ्यास आवश्यक है। जिनके पास विविध कला-कौशल होते हैं, वे स्वाभाविक रूप से कार्यप्रवण होते हैं। कार्यप्रवण बनने के लिए अध्ययन
कौशल, जीवन कौशल और कला कौशल सीखना तो आवश्यक है ही, साथ ही उनमें निपुणता भी प्राप्त करनी होगी।
इन कौशलों और कलाओं को सीखने के लिए कारीगरों और कलाकारों
के साथ कार्य करना, उन्हें
ध्यान से देखना और उनके साथ संवाद करना चाहिए। इस प्रक्रिया में अध्ययनकर्ता को
उनके भीतर की प्राणमय शक्ति, अर्थात ऊर्जा का साक्षात्कार
होता है। उत्तम नियोजन के साथ पूरे दिन सक्रिय और कार्यप्रवण बने रहना ही इस
स्वाध्याय का पहला चरण है।
अग्नयश्च’ स्वाध्याय का दूसरा चरण चेतना और प्रेरणा से
संबंधित है। प्रेरणासंपन्न बनने के लिए चरित्र वाचन (जीवनी अध्ययन) करना चाहिए, प्रेरक गीत गाने चाहिए, प्रेरणादायक व्यक्तियों के साथ समय बिताना चाहिए। इस संवाद और सहवास के
दौरान उनके जीवन के उतार-चढ़ावों को समझना चाहिए, अपने काम के प्रति उनकी लगन, कुछ कर दिखाने का जुनून, उनका संघर्ष
और उससे प्राप्त हुआ जीवन के ज्ञान का दर्शन होता है। अच्छे मित्रों का चयन करना
चाहिए। साहसिक यात्राओं, पर्वतारोहण, आवासीय
शिविरों और विभिन्न पर्यटन यात्राओं में भाग लेकर अपनी शक्तियों का मूल्यांकन करना
चाहिए। इन गतीविधोयोद्वारा खुद को परखना चाहियें।
स्वयं के गुणसंपदा को बढ़ाने की इच्छाशक्ति
का पोषण करना ‘अग्नयश्च
स्वाध्यायप्रवचने च’ का एक
महत्वपूर्ण भाग है। अपने भीतर की उत्तेजना को उत्पादक ऊर्जा के रूप में
प्रवाहित करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी पसंद के क्रियाकलापों में
स्वयं को व्यस्त रखे और दूसरों को उनकी सही आकांक्षाएं खोजने में मदद करे।
यही ‘अग्नयश्च
स्वाध्यायप्रवचने च’ का सार है।
भारतीय परंपरा में कोई भी सत्कर्म करना हो, मित्रता निभानी हो या प्रतिज्ञा लेनी हो,
वह अग्नि को साक्षी रखकर की जाती है।
मेरे उपनयन संस्कार के समय, महाबलेश्वरकर गुरुजी ने एक लकडीयोंसे बने यंत्र मे घर्षण करके जो अग्नि
प्रज्वलित की थी, वह प्रज्वलन आज भी मुझे याद है। बिना किसी
रासायनिक प्रक्रिया के, उन्होंने केवळ घर्षण उर्जासे अग्नि
उत्पन्न की और बड़े नजाकत और निपुणता से होमकुंड को प्रज्वलित किया।
जिस समय अग्नि प्रज्वलित करने के लिए रासायनिक या विद्युत
प्रक्रियाएं उपलब्ध नहीं थीं, उस समय
अग्नि के स्रोत का अत्यंत सावधानीपूर्वक जतन करना आवश्यक था। एक ज्योति से
दुसरी ज्योति प्रज्वलित की जाती है। लेकीन इस के लिये अग्नी के स्रोत का जतन
करना उस जमानेमे एक बडी जीम्मेवारी का कार्य था।
इसी कारण,
अग्निपूजन का व्रत लेकर उसे निभाना ही अग्निहोत्र का पालन करना माना जाता है ।
ऊर्जा को उपयोगी रूप में परिवर्तित करना और उसे स्थायी रूप
से बनाए रखना एक कठिन कार्य है। इसके लिए उचित प्रकार के ईंधन की आपूर्ति और
प्राणवायु (ऑक्सीजन) का संतुलित अनुपात बनाए रखना आवश्यक होता है। यदि यह संतुलन
बिगड़ जाए, तो कालिख जमा हो जाती
है। और जब कालिख जम जाती है, तो उसे झटककर ज्योति को पुनः
प्रकाशमान करना पड़ता है।
भौतिक ऊर्जा रुपी अग्नि का ध्यान रखा जा सकता है,
उसे संभालकर रखा जा सकता है
लेकिन वह ऊर्जा जो हमे भीतर से प्रेरित करती है,
उस ऊर्जा अर्थात अंतःप्रेरणा, उसका क्या?
उसका ध्यान रखना और उसे पोषित करना ही एक स्वाध्याय है।
अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च।
ध्येय की पूर्ति के लिए व्रतबद्ध आचरण करना और
दूसरों को भी ऐसा आचरण करने में सहायता करना भी एक स्वाध्याय है।
अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च।
भारतीय संस्कृति प्रकाश की, अर्थात् तेज की उपासक है।
"तमसो
मा ज्योतिर्गमय..."
अंधकारमय मन
को प्रकाशमय बनाने के लिए,
उसे
प्रेरणासंपन्न करने के लिए
जो निरंतर स्वाध्याय
की आवश्यक है और वह स्वाध्याय है—
अग्निहोत्रं च
स्वाध्यायप्रवचने च।
इस प्रकाश-पूजा का प्रारंभ
ज्ञान की आराधना से होता है। ज्ञान
के अग्निहोत्र का मूलभूत नियम बताते हुए समर्थ रामदास स्वामी ने कहा है—
"दिन में कुछ न कुछ लिखो, और समय-समय पर निरंतर पढ़ते रहो।"
आधुनिक काल में, १८२५ से लंदन के रॉयल इंस्टिट्यूट में "शुक्रवार संध्याकालीन
भाषण" नियमित रूप से आयोजित किए जा रहे हैं। इस व्याख्यानमाला में विश्वभर के
प्रतिष्ठित वैज्ञानिक अपने अनुसंधान और अध्ययन विषयों को शोधकर्ताओं के समक्ष
प्रस्तुत करते हैं।
उन्नीसवी सदी में माइकल फैराडे द्वारा प्रारंभ किया गया,
लगभग २०० साल चाल रहा यह प्रवचन सत्र, ज्ञान के अग्निहोत्र का ही एक रूप है।
विक्रम साराभाई, अपने लक्ष्य के प्रती समर्पित एक वैज्ञानिक ने नवंबर १९६३ में केरल के तटीय क्षेत्र थुंबा के एक छोटे से
गाँव में ऐसा ही एक अग्निहोत्र प्रज्वलित किया। आज भी, अनेक
कठिनाइयों और सफलता- विफलताओं का सामना करते हुए, इस्रो के वैज्ञानिक, शोधकर्ता और तकनीकी विशेषज्ञ अपना यह स्वाध्याय एवं प्रवचन
जारी रख रहे हैं—और यही भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र में उनकी सतत प्रगति का आधार है,
साथ ही यह भारतीय चेतना को प्रज्वलित रखने के लिये ज्ञान
का अग्निहोत्र है।
गुजरात के आणंद नामक छोटे से गाँव में, १९४६ में त्रिभुवनदास पटेल नाम के
व्यक्तीने स्थानीय महिलाओं के साथ मिलकर
ऐसा ही एक सहकार का अग्निहोत्र प्रज्वलित किया। १९४९ में, वर्गीस कुरियन जैसे समर्पित अग्निहोत्री इस मिशन में अपना योगदान देने के
लिये जुट गये, और आज भी ‘अमूल: द
टेस्ट ऑफ इंडिया’ है। अमूल इस बात का जिताजागता उदाहरण
है कि यादी भारत का आम नागरिक दृढ संकल्प, लगन और सहकार से एक दुसरे का साथ जुड जाये तो क्या करस कता है।
यह भारतीयोंके संघटीत चेतना से प्रज्वलित सहकार
का अग्निहोत्र है।
१०० वर्ष पहले, २७ सितंबर १९२५ को, डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार ने त्याग,
पराक्रम, सेवा और समर्पण के अग्निहोत्र को जागृत
किया। आज, हजारों सेवा परियोजनाओं के माध्यम से "सेवा है यज्ञकुंड,
समिधासम हम जले" की भावना को साकार करते हुए,
असंख्य अग्निहोत्री देश के कोने-कोने में सेवा के अग्निहोत्र के स्वाध्याय-प्रवचन का अनुपालन कर रहे हैं।
अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च।
अग्निहोत्रं च
स्वाध्यायप्रवचने च।
इसके लिए मार्गदर्शक प्रेरणा-सूत्र
है:
"अनंत अमुची ध्येयासक्ती,
अनंत आमुची आशा..."
असीम है हमारी ध्येय के प्रति
निष्ठा, असीम हैं
हमारी आशाएं..."
इसी असीम ध्येयभाव और अनंत आशाओं के साथ,
अग्निहोत्र के स्वाध्याय-प्रवचन को
निरंतर प्रज्वलित रखना ही
हमारा संकल्प है!
प्रशांत दिवेकर
ज्ञान प्रबोधिनी, पुणे
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